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________________ अपरिग्रह के नये क्षितिज 61 कामभोग आदि शाखाए व फल हैं। परिग्रह के तीस नामों का उल्लेख जैन ग्रन्थों मैं है, जो उसके स्वरूप के विभिन्न आयामों को प्रकट करते हैं। वस्तुतः परिग्रह में समस्त विश्व एवं व्यक्ति का सम्पूर्ण मनोलोक समाहित है। अपरिग्रह में वह इन दोनों से क्रमशः निलिप्त हो कर अात्मा स्वरूप मात्र रह जाता है। जैन दर्शन की दृष्टि से प्रात्माज्ञान की यह दशा ही चरम उपलब्धि है। प्रश्न यह है कि जिस परम्परा के चिन्तक परि ग्रह से सर्वथा निलिप्त होकर विचरे, जिन के उपदेशों में सबसे सूक्ष्म व्याख्या परि ग्रह के दुष्परिणामों की की गयी, उसी परम्परा के अनुयायियों ने परिग्रह को इतना क्यों पकड़ रखा है ? भौतिक समृद्धि के कर्णधारों में जैन समाज के श्रावक अग्रणी क्यों हैं ? भगवान् महावीर के समय में भी श्रेष्ठीजन थे। उनके बाद भी जैन धर्म में सार्थवाहों की कमी नहीं रहो । मध्य युग के शाह और साहूकार प्रसिद्ध हैं । वर्तमान युग में भी जैन धर्म के श्रीमन्तों की कमी नहीं है । ढाई हजार वर्षों के इतिहास में देश की कला, शिक्षा व सस्कृति इन श्रेष्टीजनों के आर्थिक अनुदान से संरक्षित व पल्लवित हुई है। किन्तु इस वर्ग द्वारा सचित सम्पत्ति से पीड़ित मानवता का भी कोई इतिहास है क्या ? इनके अन्तर्द्वन्द्व और मानसिक पीड़ा का लेखा-जोखा किया है किसी ने ? भौतिक समृद्धि की नश्वरता का पाठो पहर व्याख्यान सुनते हुए भी परिग्रह के पीछे यह दीवानगी क्यों है ? कौन है इसका उत्तरदायी ? इन प्रश्नो के उत्तर खोजने होंगे। भारतीय समाज की संरचना की दृष्टि से देखें तो महावीर के युग तक वणंगत व्यवस्था प्रचलित हो चुकी थी। महावीर के उपदेश सभी के लिए थे । किन्तु अहिंसा की उन में सर्वाधिक प्रमुखता होने से कृषि और युद्ध वृत्ति को अपनाने वाले वर्ग ने जैनधर्म को अपना कुलधर्म बनाने में अधिक उत्साह नहीं दिखाया। व्यापार व वाणिज्य में हिंसा का सीधा सम्बन्ध नहीं था। अतः जैनधर्म वैश्यवर्ग के लिए अधिक अनुकूल प्रतीत हुआ। और वह क्रमशः श्रेष्ठिजनों का धर्म बनता गया। इस तरह श्रीमतों के साथ व्यापारिक समृद्धि और जैनधर्म दोनों जुड़े रहे । दोनों द्वारा विभिन्न प्रकार के परिग्रह-संग्रह की अपरोक्ष स्वीकृति मिलती रही। श्रेष्ठिजनों के साथ जैनधर्म का घनिष्ट सम्बन्ध होने से यह दिनोंदिन महगा होता गया। मूति-प्रतिष्ठा, मन्दिर-निर्माण, दान की अपार महिमा, आदि धार्मिक कार्य बिना धन के सम्भव नहीं रह गये। साथ ही इन धार्मिक कार्यों को करने से स्वर्ग की अपार सम्पदा की प्राप्ति का प्रलोभन भी जुड़ गया। पापार बुद्धि वाले श्रावक को यह सोदा सस्ता जान पड़ा । वह अपार धन अर्जित करने लगा । उसमें से कुछ खर्च कर देने से स्वर्ग की सम्पदा भी सुरक्षित होने लगी । साथ ही उसे वर्तमान जीवन में महान् दानी व धार्मिक कहा जाने लगा। इस तरह परिग्रह और धर्म एक दूसरे के बराबर आकर खड़े हो गये । महावीर के चिन्तन से दोनों परे हट गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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