SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम् अपरिग्रह के नये क्षितिज भौतिकवाद के इस युग में आध्यात्म की चर्चा ने जिस ढंग से जोर पकड़ा है उससे प्रतीत होता है कि मानव को जिस संतोष व सुख की तलाश है, वह धन वैभव में नहीं है। पाश्चात्य देशों के समद्ध जीवन ने इसे प्रमाणित कर दिया है । भारतीय मनीषा हजारों वर्षों से भौतिकता के दुष्परिणमों को प्रकट करती आ रही है । फिर भी मनुष्य के पास अपार परिग्रह है। उसके प्रति तुष्णा है। साथ ही परिग्रह से प्राप्त आन्तरिक क्लेश व पीड़ा के प्रति छटपटाहट भी । अतः स्वाभाविक हो गया है-अपरिग्रह के मार्ग को खोजना । उस दिशा में आगे बढ़ना । भारतीय धर्म दर्शन में तृष्णा से मुक्ति एवं त्याग की भावना आदि का अनक्र ग्रन्थों में प्रतिपादन है । किन्तु अपरिग्रह क स्वरूप एवं उसके परिणामों का सूक्ष्म विवेचन जैन ग्रन्थों में ही अधिक हुअा है। पार्श्वनाथ के चतुर्याम-विवेचन से लेकर पं० पाशाधर तक के श्रावकाचार ग्रन्थों में पांच व्रतों के अन्तर्गत परिग्रह-परिमाण व्रत की सूक्ष्म व्याख्या की गई है । उस सबका विवेचन यहाँ प्रतिपाद्य नहीं है । मूल बात इतनी है कि जैन गृहस्थ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ अपरिग्रह व्रत को भी जीवन में उतारे । वस्तुतः यह पांचवां व्रत कसौटी है श्रावक व साधु के लिए । यदि वह अहिंसा आदि व्रतों के पालन में प्रामाणिक रहा है तो वह परिग्रही हो नहीं सकता। और यदि वह परिग्रही है तो अहिंसा अादि व्रत उससे सधे नही हैं । अपरिग्रह के इस दर्पण में प्राज के समाज का मुखौटा दर्शनीय है । ___ परिग्रह की सूक्ष्म परिभाषा तत्त्वार्थसूत्र में दी गयी है- "मूर्छा परिग्रहः ।" अर्थात भौतिक वस्तुओं के प्रति तृष्णा व ममत्व का भाव रखना मूर्छा है । इसी बात को प्रश्नव्याकरणसूत्र प्रादि ग्रन्थों में विस्तार दिया गया है । अन्तरंग परिग्रह और बाह्म-परिग्रह की बात कही गयी है। प्रात्मा के निज गुणों को छोड़कर क्रोध लोभ आदि पर भावों को ग्रहण करना अन्तरंग परिग्रह तथा ममत्व भाव से धन, धान्य आदि भौतिक वस्तुओं का संग्रह करना बाह्य-परिग्रह है । शास्त्रों में परिग्रह को एक महावृक्ष कहा गया है । तृष्णा, आकांक्षा आदि जिसकी जड़ें तथा छल-कपट, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy