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________________ 64 जैन धर्म और जीवन-मूल्य प्रवृत्त ही नहीं हो सकता है । किसके लिए वस्तुत्रों का संग्रह ? आत्मा निर्भयी है । पूर्ण है। सुखी है। फिर परिग्रह का क्या महत्त्व ? यह तो शरीर के ममत्त्व के त्याग के साथ ही विजित हो गया। यह है, महावीर की दृष्टि में अपरिग्रह का महत्त्व । इसी के लिए है-ग्रण व्रतों और महाव्रतों की साधना । प्रश्न हो सकता है कि परिग्रह में प्राकंठ डबे रहने से एकाएक आत्म-ज्ञान की समझ कैसे जागृत हो सकती है ? व्यापार-वाणिज्य को अचानक छोड़ देने से देश की अर्थ व्यवस्था का क्या होगा? अथवा किमी एक या दो व्यक्तियों के अपरिग्रही हो जाने से शोषण तो समाप्त नही होगा ? प्रश्नों की इस भीड़ में महावीर की वाणी हमें संबल प्रदान करती है । जैनधर्म को कितना ही निवृत्तिमूलक कहा जाय, किन्तु वह प्रवृत्तिमार्ग से अलग नहीं। उस में केवल वैराग्य की बात नहीं है। समाज के उत्थान की भी व्यवस्था है। स्थानांगसूत्र में दस प्रकार के जिन धर्मों का विवेचन है वे गहस्थ के सामाजिक दायित्वों को ही पूरा करते हैं। अणव्रतों का पालन बिना समाज के सम्भव नहीं है । श्रावक जिन गुणों का विकास करता है, उनकी अभिव्यक्ति समाज में ही होती है । अतः महावीर ने अपरिग्रही होने की प्रक्रिया में समाज के अस्तित्व को निररत नहीं किया है । गृहस्थ जीवन में रहते हुए हिंसा, परिग्रह आदि से बचा नहीं जा सकता, यह ठीक है । किन्तु महावीर का कहना है कि श्रावक अपनी दृष्टि को सही रखे । जो काम वह करे, उसके परिणामों से भली-भांति परिचित हो। अावश्यकता की उसे सहाँ पहिचान हो । जीवन-यापन के लिए किन वस्तुओं की आवश्यकता है, उनको प्राप्त करने के क्या साधन हैं तथा उनके उपयोग से दूसरों के हित का कितना नुकसान है आदि बातों को विचार कर वह परिग्रह करने में प्रयुक्त हो तो इससे कम से कम कर्मों का बन्ध उसे होगा। श्रावक के बारह व्रत एवं ग्यारह प्रतिमाए प्रादि का पालन गृहस्थ को इसी निस्पृही वृत्ति का अभ्यास कराता है। इसी से उसके आत्मज्ञान की समझ विकसित होती है । अपरिग्रह होने के लिए दूसरी बात प्रामाणिक होने की है। उसमें वस्तुम की मर्यादा नहीं, अपनी मर्यादा करना जरूरी है। सत्य-पालन का अर्थ यह नहीं है कि व्यापारिक गोपनीयता को उजागर करते फिरें। इसका आशय केवल इतना है कि आपने जिस प्रतिशत मुनाफे पर व्यापार करना निश्चित किया है, उसमें खोट न हो । जिस वस्तु की आप कीमत ले रहे हैं, वह मिलावटी न हो। और अस्तेय का अर्थ है कि प्रापकी जो व्यापारिक सीमा है उसके बाहर की वस्तु का प्रापने मनावश्यक संग्रह नहीं किया है। इन अतिचारों से बचते हुए यदि जैन गृहस्थ व्यापार करता है तो वह देश के व्यापार को प्रामाणिक बनायेगा । आवश्यकता और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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