SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आचार-संहिता 47 साथ ही वह प्राणि-मात्र के जीवन संरक्षण की दिशा में भी आगे बढ़ा है । मनुष्यों एवं पशुओं के अस्पताल से प्रागे बढ़ कर जैन समाज ने पक्षियों के अस्पताल भी खोले हैं, जो उनकी सेवा-भावना के अनुपम उदाहरण हैं। इस तरह जैन प्राचार प्राध्यात्मिक और तत्त्वज्ञान के धरातल पर जितना गंभीर एवं महत्त्वपूर्ण है, उतना ही वह सामाजिक क्षेत्र में भी उपयोगी है । जैन दर्शन के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण ने जैन आचार को सर्वांगीण बना दिया है ।37 वर्तमान मानव-समाज के सामने कई समस्याएँ हैं, किन्तु अभाव, स्वार्थपरता, अन्याय, अज्ञानता एव हिंसा प्राज के मानव को सबसे अधिक संत्रस्त किये हुए हैं । प्रभाव को दूर करने के लिए मनुष्य ने विज्ञान का आविष्कार किया और तरह-तरह की सुख देने वाली सामग्री अपने चारों तरफ इकट्ठा कर ली; किन्तु फिर भी उसे आज सुख नहीं मिल रहा है। सर्वाधिक वस्तुप्रों से सर्वाधिक सुख' का नारा आज व्यर्थ हो गया है। अत: ऐसो स्थिति में जैन प्राचार ने जो प्रात्मज्ञान का सिद्धान्त दिया है, वह मनुष्य के भीतर की शून्यता (रिक्तता) को मरता है । आत्म-सम्पदा से परिचित होने पर मनुष्य के लिए बाहर की वस्तुग्रों का प्रभाव, अथवा सद्भाव दुखःसुख नहीं देगा। प्रात्मसुख के लिए ही मनुष्य स्वार्थी बन कर दूसरों के साथ अन्याय करता है; अतः जैन दर्शन ने सभी प्रात्माओं में ममानता का उद्घोष कर इस समस्या के निराकरण का प्रयत्न किया है । अनेकान्त द्वारा आज के मानव की अज्ञान को समस्या का भी समाधान हो सकता है। वह ससार के बहुआयामी स्वरूप से परिचित हो सकता है। वैचारिक उदारता की प्राप्ति से वह एक विवेक-सपन्न वैज्ञानिक हो सकता है और इस तरह जब विज्ञान की प्रगति से सही दृष्टिकोण जुड़ जाएगा, उससे प्राणिमात्र का हित संबद्ध हो जाएगा, तब हिंसा का वातावरण स्वयमेव नष्ट हो जाएगा। विज्ञान और अहिंसा के इस मेल से ही मानवता का कल्याण संभव है । जैन प्राचार-संहिता इस दिशा में एक रचनात्मक भूमिका निभा सकती है। BOD सन्दभ 1. जैन, हीरालाल : भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, भोपाल, 1962 पृ. 9-22 सोगाणी, कमलचन्द : एथिकम डॉक्ट्राइन्स इन जैनिज्म, सोलापुर, 1967 .. जैनी, पद्मनाभ : जैन पाथ प्रॉफ प्यूरीफिकेशन, दिल्ली, 1971; पृ. 89. 106 4. तत्त्वार्थसूत्र (अ. 1, सूत्र 4), : सं. संघवी, पं. सुखलाल, वाराणसी, 1952 (द्वि. सं.) 5. भार्गव, दयानन्द : जैन एथिक्स, दिल्ली, 1968 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy