SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 46 जैन धर्म और जीवन-मूल्य सामाजिक योगदान : ___ जैन प्राचार का चिन्तन अध्यात्म की भूमि पर, और उसका व्यवहार समाज के धरातल पर होता है । जैन व्रत-नियमों के पालन से व्यक्ति का गुणात्मक विकास होता है; और समाज में नैतिकता के फूल खिलते हैं; अतः जैन आचार-संहिता में समाज-चिन्तन उपेक्षित नहीं है, इसलिए जैनधर्म रंग-रेशे में मानव-कल्याण के साथ जुड़ा हुआ है । सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में जैन ग्रन्थों में विपुल सामग्री उपलब्ध है। जैन आचार सामाजिक आवश्यकता की दृष्टि से कई व्रत-विधान निरूपित करता है। 36 उनमें से कुछ इस प्रकार हैं : दान जैन आचार-शास्त्र में गृहस्थ के शिक्षाव्रतों में एक है-अतिथि संविभागवत जिसमें अतिथि को भोजन, औषधि, शास्त्र आदि का दान विहित है। मनुष्य अपनी उपलब्धियों का समविभाजन कैसे करे, इसका सूक्ष्म विवेचन जैन ग्रन्थों में है। दान देते समय देने की विधि, देने की वस्तु, देने वाले (दाता), और ग्रहण करने वाले (पात्र) इन सब पर विचार करना आवश्यक है । देने वाले में अहंकार का भाव नहीं होना चाहिए, अपितु उसे क्षमाशील एवं कृतज्ञ होना चाहिये । उसके द्वारा दान में दी गयी वस्तुएँ मनुष्य के सदाचरण में सहायक होनी चाहिये । सेवा _ 'अतिथिसं विभाग' को समन्तभद्र ने 'वयावृत्त्य' (सेवा) भी कहा है, जिसमें सदाचारी व्यक्ति की सेवा करना सम्मिलित है । इसी सेवा-भावना के कारण गृहस्थों को मुनि-संघ का माता-पिता कहा गया है। मुनियों के प्राचार में भी वैयावृत्त्य नामक एक तप माना गया है, जिसकी साधना में वे रोगी, वृद्ध एव असहाय मुनियों की सेवा करते हैं। इस प्रकार की सेवा धर्म की सेवा मानी जाती है। जैन प्राचार में औषधि दान को प्रमुखता मिलने के कारण ग्राज भी जैन समाज मानव-सेवा के कार्य में अग्रणी है । इससे वह अभय दान का लाभ भी प्राप्त करता है । स्वाध्याय जैन प्राचार-ग्रन्थों में स्वाध्याय गृहस्थ एवं मुनि-जीवन दोनों के लिए एक महन्वपूर्ण सेवा मानी गयी है । अज्ञान को हटा कर ज्ञान की क्रिया में प्रवृत्त होना एवं दूसरों को भी इसी में लगाना स्वाध्याय की मूल भावना है। इससे शास्त्र-दान का उद्देश्य भी पूरा हो जाता है। शास्त्र-दान के विधान के कारण जैन परम्परा के गृहस्थों ने हजारों ग्रन्थ भण्डारों की स्थापना की है, जो भारतीय समाज की सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रमुख कन्द्र हैं। इनमें प्राज भी हजारों बहुमूल्य ग्रन्थ सुरक्षित हैं । इस प्रकार दान, सेवा, और स्वाध्याय आदि सामाजिक कार्यों द्वारा जैन आचार ने प्राध्यात्मिक जीवन को व्यावहारिक बनाया है । जीव, दया, औषधि-दान, अभय-दान सेवा आदि प्रवृत्तियों ने व्यक्तियों को मानव-कल्याण के लिए तो प्रेरित किया ही है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy