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________________ जैन आचार-संहिता 35 प्रवर्तित धर्म को जैनधर्म कहा गया है । भारतीय चिन्तन-परम्परा में सर्वप्रथम अहिंसा मय लोकधर्म का उद घोष भगवान ऋषमदेव ने किया था। उसी समतामय धर्म का प्रचार-प्रसार भगवान् पार्श्वनाथ तथा भगवान् महावीर आदि तीर्थंकरों ने किया। महावीर द्वारा प्रतिपादित जनधर्म लगभग ढाई हजार वर्षों से भारत में सर्वत्र व्याप्त है । इस धर्म की तत्त्व, ज्ञान, और प्राचारगत मीमांसा से जैनधर्म की प्राचार-संहिता का घनिष्ठ सम्बन्ध है । जैनधर्म में संसार के स्वरूप के सम्बन्ध में वैज्ञानिक दृष्टि से चिन्तन किया गया है । लोक छह द्रव्यों से बना है । जीव, अजीव (पुद्गल), धर्म, अधर्म, आकाश, और काल ये छह द्रव्य ही परस्पर मिल कर लोक की रचना करते हैं । लोक अमादि-नन्त है, अतः इसे बनाने, अथवा मिटाने वाला कोई ईश्वर आदि नहीं है। द्रव्यों में परिवर्तन स्वतः होता है; अतः गुण की अपेक्षा से द्रव्य ' नित्य ' है और पर्याय की अपेक्षा से वह ' अनित्य ' है। जैन दार्शनिकों ने वस्तु को उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक कहा है। इन छह द्रव्यों में से जीव द्रव्य चेतन है, और शेष पांच द्रव्य अचेतन हैं; अतः मूलत: विश्व के निर्माण और संचालन में जीव और अजीव ये दो द्रव्य ही प्रमुख हैं। जीव और अजीव इन दो प्रमुख तत्त्वों में परस्पर जो सम्पर्क होता है उससे ऐसे बन्धनों का निर्माण होता है, जिससे जीव को कई प्रकार की अवस्थानों से गुजरना पड़ जाता है । कई अनुभव करने पड़ते हैं। यह संसार है। यदि जीव एवं अजीव के सम्पर्क की इस धारा को रोक दिया जाए और सम्पर्क से उत्पन्न बन्धनों को नष्ट कर दिया जाए तो जीव अपनी शुद्ध एवं मुक्त अवस्था को प्राप्त हो सकता है। यह जीव का मोक्ष है। इस पूरी प्रक्रिया का संचालन करने वाले तत्त्व सात हैं : जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष 14 इनमें पाप एवं पुण्य इन दो तत्त्वों को जोड़ कर कुल नौ तत्त्व जैन दर्शन में माने जाते हैं । इनमें से जीव का सम्बन्ध जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा मे है। पाप, पुण्य, आस्रव एवं बन्ध कर्म-सिद्धान्त से सम्बधित है । मंबर और निर्जरा के अन्तर्गत जैनधर्म की सम्पूर्ण प्राचार-संहिता आ जाती है । गृहस्थ और मुनिधर्म का विवेचन इन्हीं के अन्तर्गत होता है, तथा अन्तिम तत्त्व — मोक्ष ' जैन दर्शन की दृष्टि से जीवन की वह सर्वोतम अवस्था है, जिसे प्राप्त करना प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य है । इसी के लिए प्रात्म-साक्षात्कार एवं ध्यान आदि की साधना की जाती है । संक्षेप में जैन दर्शन का सार यही है । जैनधर्म की सभी विशेषताएँ एवं आचरण इसी से सम्बन्धित हैं । सर्वदर्शन-संग्रह ' में जैनधर्म को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए कहा गया है-कर्म-परमाणुनों का आना (आस्रव) संसार का कारण है और उनके आगमन को रोक देना (सँवर) ही मोक्ष का कारण है । संपेक्ष में यही अर्हत् (जैन) दृष्टि है; बाकी सब इसका विस्तार है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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