SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 36 जैन धर्म और जीवन-मूल्य प्रास्रवो भवहेतुः स्यात्संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमाहतीदृष्टिरन्यदस्याः प्रपंचनम् ।। जैन प्राचार : पाश्चात्य दर्शनों में प्राचार-संहिता का सम्बन्ध प्राय: नैतिक कर्तव्यों से है। सही और अच्छे आचारण का अध्ययन करना प्राचार-शास्त्र का मुख्य विषय है । भारतीय दार्शनिकों की दृष्टि से दर्शन, धर्म आचार, नीति, अध्यात्म आदि शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं; किन्तु सामान्यतया प्राचार-संहिता का सम्बन्ध धार्मिक आचरण से ही अधिक है। कुछ दार्शनिक परम्परागत रीति-रिवाजों एवं धार्मिक क्रियाकाण्डों के परिपालन को ही धर्म कहते हैं । यही उनकी आचार-संहिता है; किन्तु कुछ दार्शनिकों ने अहिंसा, सत्य, संयम आदि विश्वजनीन मूल्यों को जीवन में उतारने / अपनाने को आचार माना है। कुछ ऐसे भी विचारक हैं, जो उस आचारण को आचार कहते हैं, जो सांसरिक दुःखों को दूर करने में सहायक हो तथा जिससे आध्यात्मिक उपलब्धि हो । वस्तुतः जैनधर्म की प्राचार-संहिता इसी विचारधारा से सम्बन्ध रखती है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का यह कथन कि चारित्त खलु धम्मो (चारित्र ही धर्म है) तथा 'दशवकालिकसूत्र' की यह उक्ति कि अहिंसा, संयम और तप से युक्त धर्म उत्कृष्ट मगल है? जैनधर्म की उसी मूल भावना को प्रकट करते हैं, जिनमें प्राचार को अध्यात्म-प्राप्ति का साधन माना गया है । अतः मैन प्राचार-संहिता केवल नैतिक नियमों से सम्बन्धित नहीं है, तत्त्वज्ञान और अध्यात्म से भी वह जुड़ी हुई है । व्यवहारिक दृष्टि से जैन आचार-सहिता जहाँ एक प्रोर व्यक्ति और समाज को नागरिक गुणों से युक्त करती है, वहीं दूसरी ओर पारमार्थिक दृष्टि से वह उनका मुक्तिमार्ग प्रशस्त करती है । वस्तुत: जैन प्रचार-संहिता में व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जीवन-पद्धति का समन्वय है। इसकी अन्य कई विशेषताएँ हैं; 8 जिन्हें यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है । कर्म-सिद्धान्त : भौतिक-विज्ञान में जो भूमिका कारण और कार्य की है, लगभग वही भूमिका आचार-शास्त्र में कर्म-सिद्धान्त की है। जैनधर्म में कर्म-सिद्धान्त की प्राधार-शिला पर ही उसकी प्राचार-संहिता का भवन खड़ा हुआ है। जैन दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अपने द्वारा किये गये अच्छे-बुरे कर्मों के फल भोगने के लिए स्वयं जिम्मेदार है, प्राकृतिक और व्यावहारिक नियम भी यही है कि जैसा बीज बोया जाता है, उसका फल भी वैसा ही मिलता है । जैन-दर्शन ने यही दृष्टि प्रदान की कि अच्छे कर्म करने से सुख और बुरे कर्म करने से दुःख मिलता है; अत: व्यक्ति को मन में अच्छी भावना रखनी चाहिये, वाणी-से अच्छे वचन बोलना चाहिये और शरीर से अच्छे कार्य करना चाहिये । प्रात्मा ऐसा करने के लिए स्वतन्त्र और समर्थ है। प्रात्मा ही दुःख एवं सुख का कर्ता एवं विकर्ता है । सुमार्ग पर चलने वाला प्रात्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर चलने वाला आत्मा स्वयं का शत्रु है; यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy