________________
षष्ठम
जैन आचार-संहिता
वर्तमान युग में विज्ञान की प्रगति ने मानव-जीवन की सुख-सुविधा और उसकी भौतिक समृद्धि के लिए बहुत बड़ा योगदान किया है । इससे यद्यपि मनुष्य की आर्थिक सम्पन्नता बढ़ी है, तथापि उसकी मानसिक एवं आध्यात्मिक शान्ति कम हुई है; नैतिक मूल्यों और आध्यात्मिक गुणों का दिनों-दिन ह्रास हुआ है। मनुष्य भौतिकता की दौड़ में स्वार्थी, लोभी और पराधीन हो गया है। मनुष्य के व्यक्तित्व के इस बौनेपन से समाज, राष्ट्र, और विश्व के क्षेत्र में भी अशान्ति व्याप्त हुई है । अत: स्वाभाविक रूप से अब भौतिक दृष्टि से समृद्ध मानव धर्म, आचार, एवं अध्यात्म के उन मूल्यों की और प्राकृष्ट हुअा है, जो उसे वास्तविक सुख-शान्ति दे सकते हैं। भारतीय दार्शनिक चिन्तन और ध्यान के प्रयोगों में मानव-कल्याण के सूत्र निहित हैं । जैनधर्म नैतिक मूल्यों और आध्यात्मिक अनुभवों की दृष्टि से अधिक समृद्ध है; अतः जैन प्राचार-महिता के प्रमुख सिद्धान्त : अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अनेकान्त, त्रिरत्न, (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक चरित्र) आत्मसाक्षात्कार आदि विश्व में शान्ति स्थापित करने के लिए एवं मानव-कल्याण के लिए आधारभूत समाधान प्रस्तुत करते हैं । जैन तत्वज्ञान :
जैनधर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है । प्रारम्भ में श्रमणधर्म, अर्हत धर्म एवं निर्ग्रन्थ धर्म के नाम से जाना जाता था। जैनधर्म की परम्परा के महापुरुष समस्त प्राणियों में समान भाव रखते थे, समता की साधना करते थे; इसलिए वे श्रमण कहलाये । श्रमण वह है, जिसका मन शुद्ध है, जो पापवृत्ति वाला नहीं है, तथा जो मनुष्यों एवं अन्य सभी प्राणियों को अपने समान समझता हुआ उन पर महिंसा का भाव रखता है । जैनधर्म के महापुरुषों को आध्यात्मिक गुणों से युक्त होने के कारण 'अर्हत' कहा जाता है तथा धर्मरूपी तीर्थ के संस्थापक होने के कारण वे 'तीर्थकर' कहलाते हैं । उनके बाहर-भीतर किसी प्रकार का कोई परिग्रह नहीं होता, दुष्प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए वे 'निर्ग्रन्थ' कहे जाते हैं । उन्होंने अपनी विषय-वासनामों को जीत लिया है, इसलिए ये 'जिन' कहलाते हैं। ऐसे जिन द्वारा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org