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________________ अनेकान्त : वैचारिक उदारता 25 एक मंजिल में खिड़की पर खड़े हुए वर्द्धमान मिल गये। बच्चों ने महावीर से शिकायत की कि आज आपकी मां एवं पिता दोनों ने झूठ बोला । एक ने कहा था वद्धं मान ऊपर है, दूसरे ने कहा था-वर्तमान नीचे है, जबकि तुम यहाँ बीच के खण्ड में खड़े हो । म नीचे थे, न ऊपर । वद्धमान ने अपने साथियों से कहा-'तुम्हें भ्रम हा है। मां एवं पिताजी दोनों ने सत्य कहा था । तुम्हारे समझने का फर्क है। मां नीचे की मंजिल पर खड़ी थीं। अत: उनकी अपेक्षा मैं ऊपर था और पिताजी सबसे ऊपरी खण्ड पर थे इसलिए उनको अपेक्षा में नीचे था। वस्तुप्रों की सभी स्थितियों के सम्बन्ध में इसी प्रकार सोचने से हम सत्य तक पहुंच सकते हैं। भ्रम में नहीं पड़ते ।' वर्द्धमान की यह व्याख्या सुन कर बालक हैरान रह गये। महावीर स्याद्वाद की बात कह गये । स्याद्वाद और अनेकान्तवाद में घनिष्ठ सम्बन्ध है । भगवान् महावीर ने इन दोनों के स्वरूप एवं महत्त्व को स्पष्ट किया है। अनेकान्तावाद के मूल में है-सत्य की खोज । महावीर ने अपने अनुभव से जाना था कि जगत् में परमात्मा अथवा विश्व की बात तो अलग व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान द्वारा घट को भी पूर्ण रूप से नही जान पाता । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श प्रादि गुणों से युक्त वह घट छोटा-बड़ा, काला-सफेद, हल्का-भारी, उत्पत्ति-नाश आदि अनन्त धर्मों से युक्त है। पर जब कोई व्यक्ति उसका स्वरूप कहने लगता है तो एक बार में उसके किसी एक गुण को ही कह पाता है यही स्थिति संसार की प्रत्येक वस्तु की है। हम प्रतिदिन सोने का प्राभूषण देखते हैं । लकड़ी की टेबिल देखते हैं। और कुछ दिनों बाद इनके बनते-बिगड़ते रूप भी देखते हैं किन्तु सोना और लकड़ी वही बनी रहती है। आज के मशीनी युग में किसी धातु के कारखाने में हम खड़े हो जायें तो देखेंगे कि प्रारम्भ में पत्थर का एक टुकड़ा मशीन में प्रवेश करता है और अन्त में जस्ता, तांबा आदि के रूप में बाहर पाता है। वस्तु के इसी स्वरूप के कारण महावीर ने कहा था प्रत्येक पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता से युक्त है । द्रव्य के इस स्वरूप को ध्यान में रखकर उन्होंने जड़ और चेतन आदि छः द्रव्यों की व्याख्या की है । मति, श्रुति, केवलज्ञान आदि पांच ज्ञानों के स्वरूप को समझाया है। केवलज्ञान द्वारा हम सत्य को पूर्णतः जान पाते हैं । अतः सामान्य ज्ञान के रहते हम वस्तु को पूर्णतः जानने का दावा नहीं कर सकते । जान कर भी उसे सभी दृष्टियों से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। इसलिए सापेक्ष कथन की अनिवार्यता है । सत्य के खोज की यह पगडंडी है। __ अनेकान्त-दर्शन महावीर की सत्य के प्रति निष्ठा का परिचायक है । उनके सम्पूर्ण और यथार्थ ज्ञान का द्योतक। महावीर की अहिंसा का प्रतिबिम्ब हैस्याद्वाद । उनके जीवन की साधना रही है कि सत्य का उद्घाटन भी सही हो तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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