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________________ 26 जैन धर्म और जीवन-मूल्य उस के कथन में भी किसी का विरोध न हो । यह तभी सम्भव है जब हम किसी वस्तु का स्वरूप कहते समय उसके अन्य पक्ष को भी ध्यान में रखें तथा अपनी बात भी प्रामाणिकता से कहें । 'स्यात्' शब्द के प्रयोग द्वारा यह सम्भव है । यहां 'स्यात्' का अथ है-किसी अपेक्षा से यह वस्तु ऐसी है । __ इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। राजेश एक व्यक्ति है । वह अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है तथा अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है । वह पति है एवं जीजा भी । मामा है और भात जा भी। अब यदि कोई उसे केवल मामा ही माने और अन्य सम्बन्धों को गलत ठहराये तो यह राजेश नामक व्यक्ति का सही परिचय नहीं है, इसमें हठधर्मी है । अज्ञान है । महावीर इस प्रकार के प्राग्रह को वैचारिक हिमा कहते हैं । अज्ञान से अहिंसा फलित नहीं होती । अतः उन्होंने कहा कि स्याद्वाद पद्धति से प्रथम वैचारिक उदारता उपलब्ध करो। केवल अपनी बात कहना ही पर्याप्त नहीं है, दूसरों को भी अपना दृष्टिकोण रखने का अवसर दो। सत्य के दर्शन तभी होंगे। तभी व्यवहार की अहिंसा सार्थक होगी। सत्य को विभिन्न कोणों से जानना और कहना दर्शन के क्षेत्र में नयी बात नहीं है । किन्तु महावीर ने स्याद्वाद के कथन द्वारा सत्य को जीवन के धरातल पर उतारने का कार्य किया है । यही उनका वैशिष्टय है। हम सभी जानते हैं कि हर वस्तु से कम से कम दो पहलु होते हैं। कोई भी वस्तु न सर्वथा अच्छी होती है और न सर्वथा बुरी : 'दृष्टं किमपि लोके स्मिन् न निर्दोषं न निर्गुणम् ।' नीम सामान्य व्यक्ति को कड़वी लगती है। वही रोगी के लिए प्रौषधि भी है । अतः नीम के सम्बन्ध में कोई एक धारणा बना कर किसी दूसरे गुण का विराध करना बेमानी है। सामान्य नीम की जब यह स्थिति है तो संसार के अनन्त पदार्थों अनन्त धर्मों के स्वरूप को जान कर उनका प्राग्रहपूर्वक कथन करना सम्भव नहीं हैं । महावीर ने इसे गहराई से समझा था। अतः वे मनुष्य तक ही सीमित नहीं रहे । प्राणी मात्र के स्पन्दन की सापेक्षता को भी उन्होंने स्थान दिया । मनुष्य की भांति एक सामान्य प्राणी भी जीने का अधिकार रखता है। अपने साधनों द्वारा उसे भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है । यह महावीर के स्याद्वाद की फलश्रुति है । महावीर अनेकान्तवाद व स्याद्वाद से उन गलत धारणाओं को दूर कर देना चाहते थे, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में बाधक थीं। उनके युग में एकान्तिक दृष्टि से यह कहा जा रहा था कि जगत् शाश्वत् है, अथवा क्षणिक है । इससे वास्तविक जगत् का स्वरूप खंडित हो रहा था । मनुष्य का पुरुषार्थ कुण्ठित होने लगा था नियतिवाद के हाथों । अतः महावीर ने आत्मा, परमात्मा और जगत् इन तीनो के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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