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________________ चतुर्थ अनेकान्त : वैचारिक उदारता महावीर विश्व इतिहास में एक ऐसा नाम है, जिसने ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में मानवता की ज्योति जलाई थी । जगत् के समस्त प्राणियों के हित के लिए उस महापुरुष ने अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद, आदि कल्याणकारी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था । आज सारा विश्व भगवान् महावीर को उनके इन्हीं लोकोपकारी उपदेशों के लिए याद कर रहा है । महावीर के युग में चिंतन की धारा अनेक टुकड़ों में बंट गयी थी । वैदिक परम्परा के अनेक विचारक तथा श्रमण परम्परा के 6-7 दार्शनिकों का उस समय अस्तित्व था । ये सभी चिन्तक अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य को पूर्ण रूप से जान लेने का दावा कर रहे थे । प्रत्येक के कथन में यह आग्रह था कि सत्य को मैं ही जानता हूँ, दूसरा नहीं । महावीर यह सब देख-सुन कर आश्चर्य में थे कि सत्य के इतने दावेदार कैसे हो सकते हैं ? सत्य का स्वरूप तो एक होना चाहिए। ऐसी स्थिति में महावीर ने अपनी साधना और अनुभव के आधार पर कहा कि सत्य उतना ही नहीं है, जिसे व्यक्ति देख या जान रहा है । यह वस्तु के एक धर्म का ज्ञान है, एक गुण का पदार्थ में अनन्त धर्म, अनेक गुरण तथा पयायें होती हैं । किन्तु व्यवहार में उसका कोई एक स्वरूप ही हमारे सामने आता है । उसे ही हम जान पाते हैं । शेष धर्म कथित रह जाते हैं । अतः प्रत्येक वस्तु का कथन सापेक्ष रूप से हो सकता है । यही कथन-पद्धति स्याद्वाद है । जैनाचार्यों ने महावीर के इसी कथन का विस्तार किया है । स्याद्वाद महावीर के जीवन में व्याप्त था । चितन प्रारम्भ हो गया था। कहा जाता है कि एक साथी उन्हें खोजते हुए मां त्रिशला के पास पहुंचे । भवन में ऊपर है ।' बच्चे भवन के सबसे ऊपरी खण्ड पर पहुँच गये। वहाँ पिता सिद्धार्थ थे, वर्द्धमान नहीं। जब बच्चों ने पिता सिद्धार्थ से पूछा तो उन्होंने कह दिया- 'वर्द्धमान नीचे है। बच्चे नीचे की मंजिलों पर दौड़ पड़े । उन्हें बीच की उनके बचपन में ही स्याद्वादी दिन वर्द्धमान के कुछ बालक त्रिशला ने कह दिया 'वर्द्धमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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