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________________ जैन धर्म और जीवन-मूल्य और मानवीय तत्त्वों का यह ऐसे समिश्रण का युग था जहां धर्म-साधना, पाप-पुण्य, ऊंच-नीच आदि किन्हीं द्वन्द्वात्मक प्रवृत्तियों का अस्तित्व नहीं था । जैन पुराणकारों ने ऐसी परिस्थिति के युग को भोगभूमि व्यवस्था का युग कहा है। क्योंकि उसमें आगे आनेवाली कर्म-भूमि सम्बन्धी व्यवस्थाओं का प्रभाव था। अवसर्पिणी कालचक्र का दूसरा और लगभग तीसरा विभाग भी क्रमशः बीत गया । कालप्रभाव से सभी बातें ह्रासोन्मुख होने लगीं । पृथ्वी का स्वभाव, पानी का स्वाद, पदार्थों की यथेष्ट उपलब्धि क्रमशः कम होती गई। कल्पवृक्षों को लेकर छीना-झपटी होने लगी। इसलिए इस असुरक्षा की स्थिति ने सुरक्षा एवं सहयोग का प्राह्वान किया। इससे सामूहिक व्यवस्था प्रतिफलित हुई, जिसे 'कुल' नाम दिया गया है । एक युगल प्रथम बार हाथी पर आरूढ़ हुआ। अन्य युगलों ने उसे अपना मुखिया मान लिया । इस प्रथम कुलकर ने कल्पवृक्षादि का बंटवारा कर व्यवस्था को प्रागे बढ़ाया। जैन-परम्परा में इस तरह के १४ कुलकरों की मान्यता है। प्रत्येक कुलकर ने व्यवस्था में कुछ न कुछ सुधार किये और उसी अनुपात में अन्य अनेक समस्याएं भी जन्म लेती रहीं । अन्तिम कुलकर नाभि थे। इनके समय तक एक ओर जहाँ अपराधों की वृद्धि हुई वहाँ हाकार, माकार और धिक्कार जैसी न्यायसंगत दण्ड व्यवस्था का भी प्रादुर्भाव हुआ। इससे युगल भीत रहते और सीमित कल्पवृक्षों के उपयोग से अपना जीवन-यापन करते रहते थे । क्रमशः इस स्थिति में भी परिवर्तन हुआ। अन्तिम कुलकर नाभि के समय यौगलिक सभ्यता क्षीण होने लगी। यह यौगलिक सभ्यता और आज की तथाकथित आधुनिक सभ्यता का सन्धिकाल था। कुलकर नाभि मौर उनकी पत्नी मरुदेवी के जो युगल उत्पन्न हुआ उसको प्रथम बार नामकरण संस्कार के द्वारा नाम प्रदान किये गये । पुत्र का नाम ऋषभदेव एवं सहजात कन्या का नाम सुमंगला रखा गया। घटना विशेष को लेकर पृथक-पृथक समूहों के पृथक-पृथक वंश बनाना प्रारम्भ हो गये । और विभिन्न परम्परायें चालू हो गयीं। ऋषभदेव के बाल्यकाल में एक अद्भुत घटना घटी। एक युगल अपने पुत्र व पुत्री को एक ताड़ के वृक्ष के नीचे बैठाकर स्वयं कदलीवन में क्रीडा के लिए चला गया । देवयोग से एक बड़ा फल टूटा और किसलय के समान कोमल इस पुत्र पर पड़ा। उसकी अकाल ही मृत्यु हो गयी। यह पहली अकाल मृत्यु थी। यौगलिक माता-पिता के देहान्त के बाद वह कन्या अकेली विचरण करने लगी। लोगों को यह नया अनुभव हुअा। उन्होंने उस कन्या को ले जाकर नाभि को सौंप दिया । नाभि ने ऋषभदेव के यौवन प्राप्त करने पर सहजात सुमंगला और उस अकेली कन्या सुनन्दा का उनसे विवाह कर दिया। अपनी बहिन के अतिरिक्त दूसरी कन्या के साथ भी विवाह सम्बन्ध हो सकता है, इसका यह पहला प्रयोग था। सुमंगला ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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