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प्रथम
श्रमण धर्म की परम्परा
भारतीय संस्कृति के किसी भी पक्ष को पूर्णतया उद्घाटित करने के लिए जैन संस्कृति के अध्ययन-अनुसन्धान की नितान्त आवश्यकता है। क्योंकि इसके उद्गम एवं विकास की परम्परा एक समानान्तर आधार पर अग्रसित हुई है। जैन संस्कृति के उद्गम एवं विकास का परिज्ञान उसमें स्वीकृत कालगणना के आधार पर ही करना अधिक संगत होगा। क्योंकि हर बात की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता को वेद और पाश्चात्य अध्ययन से ही प्रारम्भ करना जरूरी नहीं है। उसके आगे भी सोचा जाना चाहिए। प्राचीनता
जैन मान्यता के अनुसार सृष्टि का कभी आत्यन्तिक नाश नहीं होगा, अतः उसके रचना-काल का प्रश्न ही नहीं उठता । वह शाश्वत है । क्रम-ह्रासवाद व क्रमविकासवाद के आधार पर समय व्यतीत होता है। युग बनते हैं । और उनसे इस विश्व में क्रमश: अवसर्पण और उत्सर्पण होता है । सुख से दुख की ओर और दुख से सुख की ओर बढ़ना मानव सृष्टि की यही दो स्थितियां जैन दृष्टि द्वारा स्वीकृत हैं। इन्हीं दो स्थितियों के बीच मानव सभ्यता व संस्कृति परिवर्तित होती रहती है । ये दो स्थितियां छह भागों में विभाजित हैं-१- अति सुखरूप २- सुखरूप ३.. सुखदुखरूप ४- दुख-सुखरूप ५- दुखरूप और ६- अतिदुखरूप । जैन परम्परा ने इन छह कालों में कब क्या स्थिति हुई है एवं होगी इसका विस्तृत विवेचन किया है।
अवसर्पण की प्रादि सभ्यता अत्यन्त सरल और सहज थी। भूमि स्निग्ध, मिट्री अतिशयनिष्ठ एवं नदियों का जल मधुर व निर्मल होता था । उस समय योगलिक व्यवस्था थी । माता-पिता, पुत्र एवं पुत्री को जन्म देकर छ: माह बाद मरण को प्राप्त हो जाते थे। नवजात युग्म समय आने पर एक आगे के युग्म को जन्म देता था। किसी तरह की कौटुम्बिक व्यवस्था न होने से कोई उत्तरदायित्व नहीं था। अतः कोई व्यग्रता नहीं थी। जीवन की आवश्यकताएं बहुत सीमित थीं। जो भी थों, उनकी पूर्ति दस प्रकार के वृक्षों से हो जाती थी। इन वृक्षों को कल्पवृक्ष कहा गया है-प्रर्थात् ऐसे वृक्ष जो मनुष्यों की सब इच्छामों की पूर्ति कर सकें । प्रकृति
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