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________________ श्रमण धर्म की परम्परा भरत व ब्राह्मी को जन्म दिया और सुनन्दा ने बाहबलि और सुन्दरी को। प्रागे चलकर इन्होंने भी इस नयी वैवाहिक परम्परा को अपने सम्बन्धों द्वारा पुष्ट किया। उस समय की तात्कालिक अराजकता ने राज्य व्यवस्था को जन्म दिया। लोग अपनी शिकायत लेकर नाभि के पास पहुंचे। उन्होंने ऋषभदेव को उनका राजा घोषित किया । प्रजा ने ऋषभदेव का राज्याभिषेक किया। ऋषभदेव ने राजा का कर्तव्य निभाते हए आवास समस्या के समाधान हेतु नगर-ग्राम बसाये । अयोध्या का निर्माण सर्वप्रथम हुमा । मन्त्रीमण्डल का निर्माण किया गया। मारक्षक वर्ग की स्थापना हुई । राज्यशक्ति की सुरक्षा के लिए सेना और सेनापति रखे गये । और इस तरह मानव सभ्यता के अादि युग का प्रारम्भ हुमा । इस युग के प्रारम्भ होते ही खाद्य-समस्या ने जोर पकड़ा। कन्दमूल, फल, पुष्प, पत्र आदि के साथ कृषि द्वारा उत्पन्न गेहूं, चने, धान प्रादि अमाज का भी व्यवहार होने लगा। किन्तु पाचन-क्रिया के अभाव में प्राणियों को यह भी हितकर नहीं हुआ । लेकिन समस्या जन्मते ही समाधान भी प्रस्तुत था । एक दिन नई घटना घटी । वृक्षों के परस्पर टकराने से अग्नि की उत्पत्ति हुई । ऋषभदेव ने उसके उपयोग की रीति बतलाई । अन्न पकाकर खाया जाने लगा। अतः इस पाक-विद्या के साथ ही साथ मिट्टी के पात्र-निर्माण का कार्य भी प्रारम्भ हुअा और शिल्प ने जन्म लिया । जीवन और अधिक सरस व शिष्ट हो और व्यवहार अधिक सुगमता मे चल सके, इसके लिये ऋषभदेव ने कला. लिपि व गणित का ज्ञान भी दिया । यह परम्परा सर्वप्रथम उनके घर से ही प्रारम्भ हुई। भरत ने ७२ कलाओं का ज्ञान किया । बाहुबलि ने प्राणी-लक्षण सीखे। पुत्री ब्राह्मी ने १८ लिपियों का ज्ञान किया और सुन्दरी ने गणित का । व्यवहार-साधन के लिए मान (माण), उन्मान (तोला, मासा आदि), अवमान (गज, फुट, इन्च प्रादि) व प्रतिमान (छटांक, सेर, मन आदि) व्यापारिक कलाएं भी प्रारम्भ हुईं। धीरे-धीरे अन्य सभी कलाए एवं शिल्प विकसित हो गये। ऋषभदेव-कालीन इस सामाजिक व्यवस्था की उन्नति के समय व्यष्टि लगभग टूट गई । समष्टि काफी मात्रा में विकसित हो गई । इस प्रणाली से जहां मनुष्य का जीवन कुछ सुखमय बना, बढ़ते हुए विकार रुके, वहां ममत्व, स्वार्थ व उनसे प्रतिम्पर्धा आदि विकार बढ़ने लगे। पहले मनुष्य के समक्ष सारा प्राणी-जगत् ही अपना बन्धु था। सबके प्रति मैत्री-भाव थे । वहीं ममत्व की वह कल्पना बल पकड़ने लगी-यह मेरा पिता, भाई, पुत्र, माता एवं पत्नी है। इस प्रकार के कौटम्बिक ममत्व के अनन्तर लोकेषणा व धनेषणा भी विकसित हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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