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________________ मर्यादा-अनुशासन का पुष्टिकाल ८३ उनकी चित्तवृत्ति इतनी स्थिर व एकाग्र थी कि दूसरी तरफ उनका ध्यान ही नहीं जाता। एक बार दीवार की ओर मुंह करके वे स्वाध्याय कर रहे थे कि श्रीमद् जयाचार्य ने उनकी स्थैर्यवृत्ति की परीक्षा हेतु एक साधु को, उनकी पीठ पर रेत डालने को कहा। गुरु के आग्रह से, वह पीठ पर रेत डाल कर आ गया। मघवा उठे और शरीर झाड़कर बैठ गये । श्रीमद् जयाचार्य ने पूछा, 'क्या हुआ ?' तो आपने कहा, 'धूल गिर गई थी सो पोंछ ली। श्रीमद् जयाचार्य ने कहा, "किसने गिराई ?' आपने कहा, 'एक साधु निकला था, उसके हाथ से गिर गई होगी?' श्रीमद् जयाचार्य ने फिर पूछा, 'पता तो लगाते वह कौन था?' आपने उसी शान्त भाव से कहा, 'पता क्या लगाना ? जानकर तो कोई गिराता नहीं । भूल से गिर गई तो वह भी क्या करता? रेगिस्तान में वैसे ही बहुत आंधियां चलती हैं व रेत गिरती रहती है। उसे झड़का लेते हैं, वैसे ही इसे भी झड़का दिया।' ऐसी थी आपकी समता वृत्ति व चित्त की स्थिरता। श्रीमद् जयाचार्य का आपके प्रति अत्यन्त वात्सल्य भाव था। संवत् १९११ की मालवायात्रा में, आपको इंदौर में मोतीझरा, हो गया तब आपके अनुग्रह पर श्रीमद् जयाचार्य काफी समय इंदौर ठहरे व आपके कुछ ठीक होने पर, साधुओं से उठवा कर मघवा को इंदौर से उज्जैन तक साथ रखा । इसी प्रकार संवत् १९१३ में कालू गांव में आपको चेचक की बीमारी हुई, तब उस छोटे गांव में श्रीमद् जयाचार्य आहार पानी की कमी के उपरांत भी २७ दिन ठहरे । आप जीवन भर श्री जयाचार्य की प्रतिच्छाया बनकर उनके साथ रहे। संवत् १६१३ में श्रीमद् जयाचार्य विहार कर जैतारण पधार रहे थे तो एक साधु ने पहेली रखी "आगे जैतारण, लारे जैतारण, बीच में चालो आपां इण आड़ी रो अर्थ बतावें, तिण ने पंडित थांपां।" ___ मुनि मघवा ने तत्काल अर्थ बताते कहा 'आगे जैतारण गांव है, पीछे जगत को तारणे वाले श्री जयाचार्य हैं और बीच में हम हैं।' तब से साधु जन आपको पंडित' कहकर संबोधित करने लगे। कोई संस्कृत विद्वान आता तो श्री जयाचार्य भी उसे आपसे संपर्क करने को कहते। संवत् १९४८ के जयपुर चातुर्मास में पंडित दुर्गादत्तजी को संस्कृत व्याकरण के संबंध में बातचीत करने, आपने सारस्वत का पाठ सुनाया तो उन्होंने पूछा, 'क्या आप अब तक व्याकरण दुहराते रहते हैं ?' आपने कहा, 'नहीं, संवत् १९२२ पाली चातुर्मास में, मैंने श्रीमद् जयाचार्य को यह पाठ सुनाया था व २६ वर्ष बाद आज फिर उसे दुहरा रहा हूं, बीच में कभी सुनने-सुनाने का काम नहीं पड़ा।' ऐसी विलक्षण बुद्धि थी आपकी ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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