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________________ ८२ हे प्रभो ! तेरापंथ करने लगे, कि रास्ते में किसी व्यक्ति ने उनके वाचा पर व्यंग्य कसते हुएकहा 'इस सुन्दर सलोने बालक का पिता मौजूद होता तो क्या उसे इस तरह घर से निकालता, अच्छा है इसके जाने से इस चाचा को घर की पूरी धन-सम्पदा मिल जाएगी, हिस्सा नहीं करना पड़ेगा । चाचा का खुद का बेटा दीक्षा लेता तो इनकी खुशी-खुशी का पता लगता ।' इतना सुनते ही पोमराजजी के हृदय पर चोट लगी और वे बिना सोचे-समझे, मघवा को घोड़ी से उतार कर गोद में उठाए वहां के जागीरदार के गढ़ में घुस गए। दीक्षा में अकल्पित बाधा आ गई और उस दिन क्षा नहीं हो सकी। बालक मघवा को गढ़ में रखा गया और उसका ठाकुर ने हर तरह से परीक्षण किया पर अन्त में उसकी दीक्षा लेने की दृढ़ भावना व अडिग संकल्प देखकर उसे भेज दिया गया । श्रीमद् जयाचार्य तब तक लाडनूं पधार गए । श्री मघवा तथा उनकी माता लाडनूं गए, पुनः दीक्षा के लिए प्रार्थना की और चाचा के बाधक न बनने की भावना बतलाई । श्रीमद् जयाचार्य ने संवत् १९०८ मगसिर वदि १२ को लाडनूं शहर के बाहर पीरजी के स्थान पर हजारों व्यक्तियों की उपस्थिति में मघवा को दीक्षा दी, गुलाब सती के दीक्षा का कल्प आने पर उन्हें तथा उनकी माता बन्नोंजी को संवत् १६०८ फागुण वदि६ को बीदासर में दीक्षित किया । haar की दीक्षा के समय आचार्य श्री ऋषिरायजी रावलियों (मेवाड़) बिराज रहे थे । युवाचार्य द्वारा प्रदत्त दीक्षा की सूचना मिलते ही उन्हें छींक आई, तो उन्होंने कहा, 'लगता है साधु दीपता होगा ।' फिर दूसरी छींक आईं तब कहा, 'यह अग्रगण्य के योग्य होगा ।' इतने में फिर तीसरी छींक आई तो उन्होंने कहा, 'यह तो जीतमल का भार सम्भाल ले, तो आश्चर्य नहीं ।' श्रीमद् ऋषिराय का इस दीक्षा के दो माह बाद देहावसान हो गया और वे बाल मुनि को देख भी नहीं सके, पर उनकी भविष्यवाणी अक्षरश: सत्य निकली । शिक्षा संवत् १९०८ माघ शुक्ला १५ को श्रीमद् जयाचार्य बीदासर में आचार्य के पद पर आसीन हुए व उनके सान्निध्य में अपने संयम साधना में दत्तचित होकर विद्याभ्यास किया। आपकी बुद्धि प्रबल व स्थिर थी। आपने आवश्यक, दशवैकालिक आचारांग, वृहत्कल्पसूत्र कंठस्थ किए, अन्य आगमों की सैकड़ों गाथाएं सीखीं, अनेक Maratha आगमों का वाचन किया व सूक्ष्म आगम रहस्यों की जानकारी की । अनेक व्याख्यान, छंद श्लोक, प्रबन्ध कंठाग्र किए। सारस्वत व्याकरण का पूर्वार्ध व चन्द्रिका व्याकरण का उत्तरार्द्ध सीखकर संस्कृत भाषा के विज्ञ बने । चन्द और जिनेन्द्र व्याकरण, जैनागमों की टीका, काव्य, कोश, छंद, न्याय आदि ग्रन्थों का मनपूर्वक अध्ययन किया । उनका ज्ञान व धारणा - शक्ति इतनी विकसित थी कि वे गूढ प्रश्नों का तत्काल उत्तर देकर प्रश्नकर्ता को सन्तुष्ट व प्रभावित कर देते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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