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________________ ८४ हे प्रभो ! तेरापंथ सम्मान श्रीमद् जयाचार्य ने शासन-व्यवस्था से दण्ड-व्यवस्था को पृथक करने का प्रयोग किया व पांच संतों का पंचमण्डल दण्ड-निर्धारण के लिए बनाया। मुनि कालूजी (बड़ा) से एक बार गलती हो गई पर उन्हें पंचों से न्याय की आशा नहीं थी, अतः जयाचार्य ने श्री मघवा को उन पांच पंचों पर सरपंच नियुक्त कर दिया । उस समय आपकी अवस्था १४ वर्ष की थी, पर बड़े सन्तो का भी आप पर बहुत विश्वास था। संवत् १९१३ में खैरवा में श्रीमद् जयाचार्य के आंखों में गड़बड़ होने पर उनके आदेश से, आपने हाजरी सुनाई । संवत् १९१६ जेठ वदि १४ को श्री जयाचार्य ने आपकी संघीय सेवा से प्रसन्न होकर, आपको पांती के सब काम व सामूहिक बोझभार से मुक्त कर दिया। वैस भी आपका नाम भावी आचार्य के रूप में श्री जयाचार्य के मानस में उभर रहा था, वे कभी-कभी प्रकट भी कर देते थे। श्रीमद् जयाचार्य को साहित्य-सृजन व स्वाध्याय में निरंतर लगे रहने के कारण, संघ-व्यवस्थाओं के लिए उन्हें उत्तराधिकारी चुनना आवश्यक लगा अतः संवत् १९२० के आसोज वदि १३ को चूरू में मात्र चौबीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने आपको अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। आपने १८ वर्ष तक युवाचार्य रहकर सघ-व्यवस्था का कार्य पूर्ण उत्तरदायित्व व सजगता से निभाया। श्री जयाचार्य सौभाग्यशाली थे कि उन्हें ऐसा शिष्य मिला । वैस श्री मघराजजी भी कम सौभाग्यशाली नहीं थे कि श्रीमद् जयाचार्य के जीवनकाल में ही, छागजी चतुरभुजजी ने संघ से निकलकर भारी विद्रोह किया जो उनके जीवनकाल में ही शांत हो गया तथा आगे के लिए संघव्यवस्था का कार्य प्रशस्त व निष्कंटक हो गया। आपकी निरभिमानता व लाघव वृत्ति की अनेक घटनाएं इतिहास-प्रसिद्ध हैं। साधु साध्वियों के आहार के बाद या विभाजन करते समय अन्न कण नीचे बिखर जाते, उसे हाथ में बटोरकर बहुधा आप खाया करते। लाडन में आप वैदों कीहवेली के नीचे व्याख्यान दे रहे थे, उसमें कुछ गलती हो गई। श्री जयाचार्य ऊपर बैठे थे । उन्होंने गुलाब सती के निवेदन पर स्वयं प्रवचन हेतु जाकर मघवा को भारी उपालंभ दिया, जो आपने निश्छल भाव से स्वीकार किया। दूसरे दिन श्री: जयाचार्य ने पुनः व्याख्यान देने हेतु पधार कर मघवा के सहनशीलता व विनम्रता की सराहना की। आप दोनों दिन निंदा व प्रशंसा में समभाव रहे। आप लिपि कला में बहुत दक्ष थे। आपने हजारों पद्य लिपिबद्ध किए । आपका व्याख्यान-कौशल, प्रतिपादन-शैली एवं भावाभिव्यक्ति से जनता मंत्रमुग्ध हो जाती थी। श्रीमद् जयाचार्य हर नये नियम व मर्यादा का प्रथम प्रयोग आप पर करते थे। संवत् १९३८ भादवा वदि १२ को जयाचार्य के स्वर्ग-गमन के पूर्व तक आपने तन्मयता से उनकी सेवा-सुश्रूषा की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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