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________________ ६२ हे प्रभो ! तेरापंथ के स्रोत सन्निहित थे और उनकी क्रियान्विति ने युगों-युगों तक तेरापंथ धर्म-संघ को आत्म-साधना का एक अजेय गढ़ बना डाला। उनमें प्रमुख नई व्यवस्थाओं का निम्न प्रकार से उल्लेख किया जा सकता है पुस्तकों का संघीकरण स्वामीजी के पास पुस्तकों का अत्यन्त अभाव रहा, पर धीरे-धीरे गृहस्थों व यतिओं से व स्वयं लिखकर प्रतिलिपियां बनाने से पुस्तकें प्राप्त होती गईं, पर जो भी साधु पुस्तक प्राप्त करता, उसे वह अपने पास रख लेता, जिससे किसी के पास पुस्तकें प्रचुर मात्रा में हो गईं, तो किसी के पास अल्प मात्रा में। आपका विचार था कि कोई भी पुस्तक प्राप्त करे तो उसका लाभ सारे संघ को मिले । व्यक्तिगत शिष्य-परम्परा स्वामीजी ने ही समाप्त कर दी थी। श्रीमद् जयाचार्य ने कुछ साधुओं द्वारा पुस्तकों का विसर्जन करने में हिचकिचाहट देखकर, उन्हें आदेश दिया कि पुस्तकों का बोझ वे स्वयं उठाएं, संघ का कोई अन्य साधु-साध्वी नहीं उठायेगा। इस निर्णय से सबके मन में खलबली मच गई क्योंकि ऐसा करना सम्भव नहीं था। परिणामस्वरूप सारे साधु-साध्विओं ने अपने पास की पुस्तकें गुरु-चरणों में भेंट कर दी। गुरुदेव ने उसका आवश्यकतानुसार समान बंटवारा कर दिया व सारी पुस्तकें मात्र संघ की होने की घोषणा की व केवल आचार्य की निधाय में, अस्थायी तौर से हर किसी के पास, रखने की व्यवस्था की। इससे संघ की एकता को बल मिलने के साथ ममत्व-विसर्जन व समता की साधना भी बलवती हुई। गाथा प्रणाली पुस्तकों पर व्यक्तिगत अधिकार समाप्त हो जाने से पुस्तकों के लेखन के उत्साह में कमी न आए, इस दृष्टि से श्रीमद जयाचार्य ने गाथा प्रणाली प्रणयन किया। उन्होंने हर अग्रणी साधु के लिए प्रतिदिन २५ गाथा लिखना अनिवार्य कर दिया व प्रतिवर्ष मर्यादा महोत्सव पर हर अग्रणी के लेखापत्र में गाथाओं का लेखाजोखा रखा जाने लगा तथा हर प्रतिलिपि पर संघ की मुहर लगने लगी। आचार्य की अनुमति से ही, उसे किसी के पास रखने की व्यवस्था की गई। कोई अपनी व्यक्तिगत सुविधा के लिए स्वयं कुछ भी लिखकर अपने पास रखना चाहता, तो उसे लेखापत्र में जमा नहीं किया जाता। संघ के साधु-साध्वियों की सेवा व गाथाओं के कर को समकक्ष करके, यह भी व्यवस्था की गई कि वृद्ध, ग्लान, बीमार साधुओं की सेवा करने वाले अग्रणी की उसकी एक दिन की सेवा के बदले २५ गाथाएं जमा हो जाएंगी। ऐसी सेवा करना सबके लिए अनिवार्य कर दिया गया, ताकि कोई मात्र गाथाओं का संचय कर सेवा करने से इनकार न कर दे। गाथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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