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तेरापंथ का निर्माण व युवाकाल में प्रवेश ६३
प्रणाली वस्तु-विनिमय का साधन बन गया व व्यक्तिगत प्रतियों का आदान-प्रदान इस आधार पर होने लगा ।
कालान्तर में व्यक्तिगत व सामूहिक कार्यों का मूल्यांकन भी गाथाओं के आधार पर होने लगा । सिलाई, रंगाई आदि अनेक व्यवस्थाओं की सम्पूति करने वालों को गाथाओं का पुरस्कार दिया जाने लगा जो लेखापत्र में जमा हो जाता । जमाशुदा गाथाएं किसी को हस्तांतरित नहीं की जा सकती थीं और न किसी को उत्तराधिकार में दी जा सकती थीं । गाथाएं वे ही जमा की जातीं जो साफ, सुघड़, सुन्दर लिपि में लिखी गई हों । श्रीमद् जयाचार्य ने स्वयं लिपि - सुधार का कार्य प्रारम्भ किया व अन्य को प्रेरित किया । अतः कुछ ही समय में सारे संघ की लिपि इकसार, सुन्दर व सुघड़ बन गई । इस एक ही व्यवस्था में संघ में 'समाजवाद' वास्तविक रूप से प्रकट हो गया। इससे संघ में अच्छे लिपि - कार, अच्छे ग्रन्थ की प्राप्ति, अच्छा वितरण व वस्तु का अच्छा उपयोग स्वतः सिद्ध हो गया । साध्वियों के लिए प्रत्येक अग्रणी पर प्रतिवर्ष एक रजोहरण, एक प्रमार्जनी व एक-एक डोरी गूंथकर लाने का कर लगा दिया गया व प्रतिवर्ष आचार्य को भेंट देने की व्यवस्था की गई । आचार्य आवश्यकतानुसार इन उपकरणों को बांट देते व कभी-कभी गाथाओं के बदले साधुओं को कार्य से मुक्ति प्राप्त करने की अनुमति दे देते, पर भेंटस्वरूप दिये गये उपकरणों पर स्वत्व सारे संघ का समझा जाता ।
आहार-संविभाग
आहार का समान वितरण करने की व्यवस्था तो स्वामीजी ने ही कर दी थी, पर उस समय संत अधिक होने व सतियां कम होने से साध्वियों को आहार
कम आवश्यकता रहती थी, अतः साधु-साध्वी सारा आहार लाकर स्वामीजी के पास रख देते व साधुगण अपनी आवश्यकतानुसार आहार लेकर अवशिष्ट आहार साध्वियों को दे देते और वे बांट- बांटकर आहार कर लेतीं ।
श्रीमद् ऋषिराय के समय में साध्वियों की संख्या साधुओं से कहीं अधिक हो गई, तब उपरोक्त व्यवस्था में परिवर्तन की अपेक्षा हुई । श्रीमद् जयाचार्य ने पुरुष के लिए बत्तीस कवल व स्त्री के लिए अट्ठाईस कवल आहार समुचित मानकर मर्यादा बनाई कि इस आधार पर साधु-साध्वियों के आहार का समान बंटवारा किया जाये । इसमें कई कठिनाइयां आने पर बाद में सारा आहार साधुसाध्वियों की संख्या के अनुपात से विभाजित करने की व्यवस्था कर दी । विभाजन को सुविधाजनक बनाने के लिए साधु-साध्वियों के अलग-अलग दलों के मुखियों पर विभाजन का दायित्व डाला गया । मर्यादा महोत्सव पर सैकड़ों साधुसाध्वियों को व अन्यान्य प्रसंगों पर भी अनेक साधु-साध्वियों को आवश्यकता
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