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________________ ५८ हे प्रभो ! तेरापंथ आयी हुई थी । उसने बाजार में बांस रोपकर खेल प्रारम्भ किया । नगर की सारी जनता खेल देखने उमड़ पड़ी। इधर जयाचार्य दूकान में बैठे लेखनकार्य करते रहे । नाटक बिलकुल सामने होते रहने पर भी श्रीमद् जयाचार्य ने दो-तीन घंटों तक उस ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा । भीड़ में एक वृद्ध सम्भ्रांत व्यक्ति, जो तेरापंथ से द्वेष रखता था, की दृष्टि आप पर पड़ गई और नाटक की बजाय वह अपलक आपको ही निहारता रहा। एक बालक नाटक की ओर दृष्टि ही न डाले, यह उसके लिए आश्चर्य का विषय था । नाटक समाप्त हुआ । उसने अपने साथियों व सगे-सम्बन्धियों को इस घटना की जानकारी दी। कहा, “जिस संघ में ऐसा सजग व स्थिर योगी बाल- साधु है, उस संघ को आगामी सौ वर्ष तक भी कोई हिला न सकेगा ।" तेरापंथ की आचारशीलता व मर्यादाओं को अक्षुण्ण रखने में आप सदा सजग रहे । जब भारीमालजी स्वामी ने युवाचार्य - नियुक्ति पत्र में ‘खेतसी तथा रायचन्द' दो नाम लिखे, तब मात्र अठारह वर्ष के होने पर भी, आपने उनसे निवेदन किया कि ऐसी परम्परा का सूत्रपात भविष्य के लिए उचित नहीं रहेगा, अतः वे चाहे जिस एक व्यक्ति की ही नियुक्ति करें । आचार्यप्रवर को यह बात ठीक लगी और उन्होंने खेतसीजी का नाम काट दिया । जयाचार्य की दूरदर्शिता ने सदा-सदा के लिए सही परम्परा कायम करा दी । जब श्रीमद् ऋषिराय आचार्य बने, तब मुनि हेमराजजी उनसे दीक्षा में बड़े थे । वे उनका अत्यधिक सम्मान करते थे। मुनि हेमराजजी पहली बार आचार्य महाराज के पास आये तो सायंकालीन प्रतिक्रमण के बाद उन्होंने अपनी आलोचना स्वयं कर ली। उस समय तक आलोचना गुरु के समक्ष लेने की परंपरा बनी नहीं थी । ऋषिराय ने आचार्यत्व के महत्त्व को बढ़ाने हेतु परंपरा प्रारम्भ करनी चाही, पर वे हेमराजजी को, उनके प्रति पूज्य भाव होने से, कहने में संकोच करते थे । तब उन्होंने जीतमलजी को बुलाकर निर्देश दिया, "जब तक मुनि हेमराजजी आचार्य के पास आकर आलोचना न लें, तब तक तुम्हें अन्न-पानी का त्याग है ।" बड़ी विचित्र स्थिति थी, आचार्य स्वयं न कहकर एक बाल-मुनि व हेमराजजी द्वारा ही संस्कारित शिष्य से, अपनी बात कहलवाना चाहते थे । पर उन्हें आपकी योग्यता पर विश्वास था, जो सही प्रमाणित हुआ । आपने मुनिश्री हेमराजजी को अत्यन्त विनम्रता से आचार्य महाराज के पास आलोचना लेकर एक सुन्दर परम्परा प्रारम्भ करने का निवेदन किया । मुनिश्री हेमराजजी के मन में कोई दुर्भाव तो नहीं । वैसे भी वे एक महान् भावितात्मा थे । वे आचार्यप्रवर के पास आए व आलोचना ली। श्रीमद् जयाचार्य की विलक्षण योग्यता से तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्य का सम्मान रखने की एक नई सुन्दर परम्परा प्रारम्भ हो गई । आप मुनिश्री हेमराजजी के साथ (१८६६-१८८१) बारह वर्ष रहे । विनय, विवेक और विचारशक्ति से आपने इन वर्षों में मुनिश्री से प्रवचन कला, तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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