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________________ तेरापंथ का निर्माण व युवाकाल में प्रवेश ५७ सेवा, शास्त्र-श्रवण का अनायास लाभ मिल गया। पूरे परिवार के लिए यह समागम वरदान बन गया। भारीमालजी स्वामीजी ने संवत् १८६६ का चातुर्मास जयपुर में लाला हरचन्दलालजी जौहरी के मकान में किया । चातुर्मास में कल्लूजी अपने तीनों पुत्रों सहित दर्शन-सेवार्थ जयपुर गईं। श्रीमद् जयाचार्य ने उस समय जैन तत्त्वज्ञान (पच्चीस बोल, तेरह द्वार, चर्चा) कंठस्थ कर लिया। अध्यात्म-साधना में रुचि लेने लगे । लाला हरचन्दलालजी आपकी असाधारण प्रतिभा व अध्यात्म-लीनता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने श्री कल्लूजी को कहा, "तुम्हारे छोटे पुत्र की प्रकृति व आकृति से लगता है कि वह दीक्षित होकर महान् तेजस्वी साधु होगा। इसमें मैं बाधक बनना नहीं चाहता पर यदि यह दीक्षा न ले, तो मैं अपनी भतीजी से इसका सम्बन्ध करना चाहूंगा। मेरे परम मित्र बहादुरसिंहजी के गोद देना चाहूंगा। उनके पास पचास हजार रुपये की नकद संपत्ति है, बाद में यह उस सम्पति का स्वामी हो जायेगा।" श्रीमद् जयाचार्य भला ऐसे बड़े लोभ में भी कैसे फंस सकते थे? वे दीक्षा के लिए तैयार हो गये । महासती अजबूजी भी चातुर्मास के बाद वहाँ पधार गई। उन्होंने स्वरूपचन्दजी आदि को प्रेरित किया। सारा परिवार विरक्त बन गया। सबसे पहले स्वरूपचन्दजी दीक्षित हुए, बाद में जीतमलजी का दीक्षा संस्कार श्रीमद् ऋषिराय द्वारा किया गया, जो शुभ भविष्य का सूचक था। आचार्य महाराज ने तो उसी समय भविष्यवाणी कर दी थी कि ऋषिराय का शासन-भार जीतमल को संभालना है, अतः वे ही उसे दीक्षित करें। बाद में भीमराजजी व कल्लूजी ने भी दीक्षा ले ली। इस तरह लगभग दो माह में तीन पुत्रों सहित माता ने दीक्षा ले ली। दीक्षा के बाद आचार्यप्रवर ने जीतमलजी व उनके अग्रजों को मुनिश्री हेमराजजी को सौंप दिया। सक्रिय शिक्षण दीक्षा के समय आपकी अवस्था मात्र नौ वर्ष की थी। मुनिश्री हेमराजजी जैसे कुशल संरक्षक व अनुपमेय मार्गदर्शक ने ही प्रारम्भ से आप में ज्ञान, दर्शन, चरित्र के गहरे संस्कार भर दिए । स्वामीजी से प्राप्त अपनी समस्त ज्ञान, दर्शन, चरित्र ऊर्जा को शनैः-शनैः आप में उड़ेल दिया। इस तरह वे लगातार बारह वर्ष तक स्वामीजी की शक्ति को जीतमलजी (जयाचार्य) में प्रवाहित करने के लिए सेतु बन गये। ऐसा लगा मानो जीतमलजी के रूप में भिक्षु स्वामी का पुनः अवतरण हो गया है। मन, वचन, शरीर की शक्तियों को स्थिर करने का प्रयास आपने बचपन से ही प्रारम्भ कर दिया। जब आप मात्र पन्द्रह वर्ष के थे, तब मुनि हेमराजजी संवत् १८७५ में पाली पधारे व बाजार में बिराजे । उन दिनों वहां नट मण्डली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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