SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ हे प्रभो ! तेरापंथ था। आपकी नस-नस में ओज व मधुरता भरी थी, जिससे आप सबको अत्यन्त वल्लभ लगते थे। आपका विशाल, प्रशस्त, तेजस्वी ललाट आपकी होनहारिता का सूचक था। आपकी प्रखर बुद्धि एवं शान्तवृत्ति आदि सद्गुणों का पुंज आपके जन्म-जन्मान्तर से संचित शुभ संस्कारों का ही परिणाम था। संस्कार एवं दीक्षा स्वामी भीखणजी एक बार रोयट पधारे, तब आपका परिवार श्रद्धालु बना। संवत् १८४४ में आपकी बुआअजबूजी ने स्वामीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। बाद में अग्रगण्य बन गईं। आपके परिवार की अध्यात्म-साधना के लिए यह शुभ श्रीगणेश था। एक बार अजबूजी विहार करती रोयट पधारी। उन दिनों शैशव अवस्था में आप इतने रोगग्रस्त हो गए कि आपके जीने की आशा छोड़ दी गई । सती अजबूजी जब आपकी माता को दर्शन देने आयीं तो कल्लूजी की आंखें दुःख से डबडबा गईं। सतीजी ने बालक की आकृति देखकर उन्हें आश्वासित किया, साथ में कल्लूजी को यह संकल्प भी करवाया कि बालक रोगमुक्त हो जाए, दीक्षा लेने की भावना हो तो उसमें बाधक न बनें, सुगमता से स्वीकृति दे दें। कल्लूजी, जो बच्चे के प्राण रहने तक की आशा छोड़ चुकी थीं, ने इसे सहज भाव से स्वीकार कर लिया। संयोग से बालक धीरे-धीरे रोगमुक्त होकर बिलकुल स्वस्थ हो गया। कहना चाहिए कि तेरापंथ धर्मसंघ के भाग्य से ही आपका जीवन अक्षुण्ण रहा । आप तेरापंथ के लिए ही जीवित रहे। बचपन से ही पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण आप में गहन अध्यात्म-भावना थी। जब आप सात-आठ वर्ष के हुए, तभी से दीक्षा लेने के लिए लालायित रहने लगे व प्रतीक्षा करने लगे। कभी-कभी किसी वस्त्र की झोली बनाकर उसमें कटोरी रखकर सगे-सम्बन्धियों के यहां भिक्षा लेने जाने का अभिनय करते। उनसे कहते कि उसने दीक्षा ले ली है । कुछ समय बाद परिवारवालों ने आपकी सगाई कर दी । आपके बड़े भाई स्वरूपचन्दजी व भीमजी की भी सगाइयां हो चुकी थीं। उन दिनों अबोध उम्र में ही सगाइयां हो जाती थीं। प्रायः छोटी अवस्था में ही विवाह हो जाते थे । आप केवल तीन वर्ष के थे, तब मीरखाँ डाकू के दल ने रोयट में डाका डाला। उसके आघात से आपके पिता की मृत्यु हो गई । कल्लूजी असहाय हो गईं, पर उस स्थिति का उन्होंने धैर्य से मुकाबला किया। वे अपने तीनों बच्चों को लेकर किशनगढ़ चली गईं, जहां स्वरूपचन्दजी ने व्यापार प्रारम्भ कर भरणपोषण का प्रबन्ध किया । जयपुर पधारते श्रीमद् भारीमालजी स्वामी का उन्हीं दिनों किशनगढ़ आना हुआ । कल्लूजी एवं उनके पुत्रों को अपने गुरुदेव के दर्शन, १. जयाचार्य की रचनाओं के आधार पर मेरा अपना अभिमत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy