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________________ तृतीय आचार्य श्रीमद् ऋषिराय (रायचंदजी) ५१ ३. मुनि कालूजी बड़ा ____ आप मुनिश्री खेतसीजी, हेमराजजी जैसे विरल साधुओं की कोटि में आते हैं, जिन्होंने समय पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर संघ को तूफानी थपेड़ों से बचाया । वे मेवाड़ में गांव रेलमगरा के निवासी थे । जाति से सरावगी व गोत्र से छाबड़ा थे। इनके पिता का नाम मानमलजी व माता का नाम वखतूजी था। इनका जन्म सं० १८६६ में हुआ। सं० १६०८ में महासती नवलोंजी के रेलमगरा चातुर्मास में आप व आपकी माताजी तत्त्वज्ञान सीख कर संयम साधना के प्रति आकृष्ट हुए व उसी वर्ष मगसिर वदि ८ को आचार्यवर की आज्ञा से मुनि भवानजी ने आपको व आपकी माताजी को दीक्षित किया। दो माह बाद ही श्रीमद जयाचार्य पदासीन हो गए व उन्होंने आपको मुनि स्वरूपचन्दजी के साथ दे दिया। आपका कद दुबला-पतला, नाटा था व वर्ण श्याम था पर चेहरे पर ऐसी दिव्य कान्ति थी कि उसमें आपका विराट् व्यक्तित्व बरबस प्रकट हो जाता। आप सत्रह वर्ष तक स्वरूपचंदजी स्वामी के साथ रहे व तन्मय होकर उनकी जीवन-पर्यन्त सेवा की। आपने उनसे सारे आगमों का वाचन कर अर्थ व रहस्य समझे, उनके सं० १६२५ में दिवंगत होने पर चार वर्ष आप श्रीमद् जयाचार्य के साथ रहे व वहां शासन-व्यवस्था व मर्यादा-पालन के अनुभव प्राप्त किए। सं० १९२६ में आपने श्रीमद् जयाचार्य की आँख में मोतियाबिंद का अत्यन्त कुशलता से ऑपरेशन किया, उसी वर्ष आपको अग्रगण्य बना दिया गया व आपको कई प्रकार से श्रीमद् जयाचार्य ने बख्शीशें देकर सम्मानित किया। सं० १९३७ में सरदारशहर चातुर्मास में आपने अत्यन्त कठोर श्रम करके एक साथ सैकड़ों लोगों को संघ के प्रति श्रद्धाशील बनाया। तेरापंथ की राजधानी सरदारशहर के वर्तमान स्वरूप का प्रारम्भ करने का श्रेय आपको ही है। रास्ते में घंटों खड़े रहकर आपने अनिच्छुक श्री जेठमलजी गधैया से धर्म-चर्चा की व गुरु-धारणा कराई। इस तरह चार-पांच पीढ़ी से संघ की अविचल व निष्काम सेवा में लगे हुए गधैया परिवार में सम्यक्त्व का बीज-वपन आपके हाथों हुआ। आप आचार्यों की आज्ञा से अधिक उनके संकेत तक को सर्वोपरि मानते थे, अतः एक बार घोषित चातुर्मास फतहपुर छोड़कर संघ के बहिर्भूत साधु छोगजी चतुरभुजजी के मिथ्या प्रचार का निराकरण करने हेतु आपने सरदारशहर चातुर्मास किया व स्वयं जयाचार्य ने इसकी सराहना की। आपने तेरापंथ के इतिहास को सुरक्षित रखने हेतु इतिहास (ख्यात) लिखना प्रारम्भ किया। संवत् १९४३ तक का प्रामाणिक इतिहास लिखा। इतिहास लिखने की वह परम्परा अब तक चालू है। आपने हजारों व्यक्तियों को प्रतिबोध दिया व दो बहनों को दीक्षा दी। मघवा गणि व माणक गणि ने आपको बहुत सम्मान दिया व आपके विहार के समय वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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