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________________ तेरापंथ का उदयकाल १७ प्रचार-प्रसार एवं संघ-वृद्धि साध्वियों की दीक्षा-घोर विरोध व भयानक परिषह के कारण स्वामीजी के संघ में दीक्षा लेना हर किसी के लिए दुरूह कार्य था, फिर स्वामीजी भी पूरी परीक्षा करके ही दीक्षा देते थे, अतः उस स्थिति में लगभग चार वर्ष तक कोई महिला साध्वी बनने के लिए तैयार नहीं हो पाई । संवत् १८२१ में कुशालोंजी, मटूजी, अजबूजी नाम की तीन महिलाएं दीक्षा के लिए उद्यत हुईं। स्वामीजी ने उनकी परीक्षा लेते पहला प्रश्न किया; "क्या किसी समय आवश्यकता पड़ने पर संलेखना, संथारे के लिए तैयार हो सकती हो ?" महिलाएं भी बड़ी निर्भीक थीं और उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के कह दिया, "हां, हम इसके लिए सदा तैयार रहेंगे।" परीक्षा में खरी उतरने पर स्वामीजी ने उन्हें दीक्षा दे दी । यह प्रश्न भी जैन आचार परंपरा से संबंधित था, साध्वियां दो रह नहीं सकतीं, अतः तीनों में से एक का वियोग हो जाता तो शेष दोनों को आमरण अनशन करना पड़ता, क्योंकि उस समय अन्य साध्वियों के दीक्षित होने की कल्पना करना भी दुरूह था। सौभाग्य से फिर दीक्षाओं में वद्धि होती गई व ऐसा अवसर आया ही नहीं पर उन वीर साध्वियों ने मरने का संकल्प लेकर दीक्षित होने से एक गौरवशाली इतिहास अवश्य बना दिया ।' भावी व्यवस्था (मर्यादा-पत्र व युवाचार्य-मनोनयन) पन्द्रह वर्ष सतत साधना, श्रमनिष्ठा एवं प्रचार-प्रसार के कारण स्वामीजी के संघ में वृद्धि होने लगी, तब संवत् १८३२ की मिगसर वदि ७ को बीठोड़ा गांव में स्वामीजी ने संघ-संचालन के लिए एक मर्यादापत्र बनाया व यह व्यवस्था की, कि "तेरापंथ धर्मसंघ में एक ही आचार्य होगा और सारे साधु-साध्वीगण उनके ही शिष्य होंगे, व उनकी आज्ञा के अनुसार ही चातुर्मास व शेषकाल में प्रवास करेंगे व श्रद्धा, आचार, व्यवस्था से संबंधित उनका निर्णय सभी को मान्य होगा, पूर्वाचार्य द्वारा ही भावी आचार्य का मनोनयन होगा और सारे संघ को वह स्वीकार्य होगा, संघ के साधु-साध्वियों के पास वस्त्र-पात्र, उपकरण सारे संघ के होंगे। आचार्य किसी को दीक्षित करने के पूर्व उसकी पूरी परीक्षा करेगा व हर किसी को प्रवजित नहीं करेगा, कोई साधु-साध्वी संघ में दलबंदी नहीं कर सकेगा, और स्वखलना या अविनय के कारण संघ से बहिष्कृत व बहिर्भूत होगा, उसे संघ का कोई सदस्य साधु नहीं मानेगा, प्रश्रय नहीं देगा व परिचय-प्रीति नहीं रखेगा।" मर्यादा-पत्र में आगे के आचार्य का नामोल्लेख करना आवश्यक होने से उन्होंने अपने सबसे समर्पित व योग्य श्री भारमलजी स्वामी को अपना युवाचार्य घोषित १. तथ्यात्मक विश्लेषण के आधार पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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