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________________ १६ हे प्रभो ! तेरापंथ बाल साधु को क्यों पकड़ रखा है ? चाहो तो मुझसे बात करो।' इतना सुनते ही वह सर्प सपाटे से एक लकीर खींचता हुआ वहां से तत्काल चलता बना। मुनि भारमलजी अंदर आकर सो गए, पर भिक्षु स्वामी जागते रहे, निमंत्रित अतिथि की प्रतीक्षा में । कुछ देर बाद एक धवल वस्त्रधारी आकृति उनके सामने आई और उसने निवेदन किया, "हे साधुश्रेष्ठ ! आपके यहां रहने से मुझे कोई कष्टः नहीं है, आप देवताओं के भी पूज्य हैं। केवल मेरी खींची हुई लकीर के घेरे में मलमूत्र का उत्सर्ग न हो, मंदिर के आगे दाहिने चबूतरे पर आप निःसंकोच विराजें, प्रवचन करें, बाएं चबूतरे पर बैठकर मैं अदृश्य भाव से आपकी सेवा-परिचर्या करता रहूँगा, व संघ की सुरक्षा में सदा सदैव सहयोगी बना रहूँगा ।" सच है अहिंसा, तप व संयममय धर्म की साधना करने वाले आत्मबली पुरुषों की देवता भी सेवा करते हैं । अनायास ही एक चमत्कार घटित हो गया, प्रातः लोगों ने स्वामी जीव उनके सहयोगी मुनियों को निर्भीकता से अपनी उपासना करते देखा व रात की घटना की उनको जानकारी मिली तो 'चमत्कार को नमस्कार' वाली कहावत घटित हो गई । सारा केलवा गांव स्वामीजी के दर्शनार्थ उमड़ पड़ा। वहां के ठाकुर 'मोखमसिंहजी' ने भावभरी अभ्यर्थना की, सारा समाज स्वामीजी का अनुगामी हो गया, तेरस को स्वामीजी ने उपवास किया, चतुर्दशी को स्वामीजी व सहयोगी सन्तों ने बेला किया व पूर्णिमा को तेला किया और ठाकुर मोखमसिंहजी के निवेदन पर पारणा उनके यहां से आहार लाकर किया। एक और निर्णय की घड़ी आ गई । आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को भिक्षु स्वामी व उनके सहयोगी संतों ने अर्हतों व सिद्धों की साक्षी से मन, वचन, काया के योग सहित सब पापों के करने, कराने या अनुमोदन करने का त्याग किया, व शुद्ध साधुत्व ग्रहण किया । तेरापंथ की विधिवत् स्थापना की गाथा एक अप्रत्याशित किन्तु रोमांचक घटना के साथ जुड़ गई । इस घटना ने बिना किसी श्रम के, एक साथ सारे केलवा को स्वामीजी के प्रति आस्था के साथ जोड़ दिया व तेरापंथ धर्मसंघ में केलवा व अंधेरी ओरी एक ऐतिहासिक स्थली बन गया । स्वामीजी ने अपने जीवनकाल में छः वर्षावास केलवा बिताए व आचार्य श्री तुलसी ने संवत् २०१७ में तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह का शुभारंभ वहीं से किया । केलवा की घटना ने लगभग सारे मेवाड़ में स्वामीजी की यशोगाथा को विस्तार दिया व आसपास के क्षेत्र उग्र विरोध के उपरान्त भी श्रद्धाशील हो गए। केलवा चातुर्मास की परिसमाप्ति के बाद स्वामी जी मारवाड़, मेवाड़ के दुर्गम क्षेत्रों में विहरण कर स्वपरकल्याण करते रहे, विरोध की आंच मंद पड़ती रही पर उनकी यशोगाथा के साथ, ईर्ष्या की अग्नि के कारण सर्वथा बुझन सकी । १. आचार्य भिक्षु : व्यक्तित्व एवं कृतित्व - श्रीचन्द रामपुरिया, पृ० १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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