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________________ तेरापंथ का उदयकाल १३ कर दिया, जो लगभग दो वर्ष चला। भिक्षु स्वामी की उत्कट तपस्या, अपूर्व वैराग्य एवं प्रजा के प्रति लोगों का आकर्षण तो बन रहा था पर सामाजिक बहिष्कार के भय से वे दिन में उनके पास आने का साहस जुटा नहीं पाते पर रात्रि में वे लुक-छिपकर आते व उनसे सही तत्त्व की जानकारी करते व उनकी मान्यताओं के प्रति श्रद्धा प्रकट करते । दिन पर दिन ऐसे श्रद्धालुओं की वृद्धि होने लगी, तब मुनि श्री थिरपालजी व फतेवंदजी, जो भिक्षु स्वामी से अभिनिष्क्रमण के पूर्व दीक्षा में बड़े थे व बाद में भी स्वामीजी ने उन्हें बड़ा रखा, ने निवेदन किया, "स्वामीनाथ ! आप न केवल वीतराग प्रभु के बताए मार्ग पर चलने में सक्षम हैं, पर उसकी अभिव्यक्ति देने में भी समर्थ हैं, अतः आप लोगों को समझाएं, उन्हें सत्पथ पर लगाएं व लोक-कल्याण की ओर अग्रसर हों, तपस्या का कार्य हम जैसों के लिए छोड़ दें।" समयोचित उद्गारों का स्वामीजी पर प्रभाव पड़ा और वे फिर 'सर्वजन हिताय-बहुजन हिताय' के लिए प्रचार में जुट गए। मुनि थिरपालजी व फतेचंदजी को सचमुच तेरापंथ धर्मसंघ की नींव का पत्थर कहा जा सकता है। तेरापंथ को विधिवत् स्थापना व नामकरण जिस तरह तेरापंथ का प्रसव राजनगर के श्रावकों के विद्रोह के कारण व तेरापंथ का उदय आचार्य रुघनाधजी की अहंवृत्ति व रोष के कारण अप्रत्याशित रूप से हुआ, उसी तरह तेरापंथ के नामकरण व विधिवत स्थापना का इतिहास भी अप्रत्याशित रूप से ही बना है। नामकरण भिक्षु स्वामी का संवत् १८१६ का चातुर्मास जोधपुर था व उनसे वहाँ कुछ श्रावक प्रभावित हुए थे । बाद में, जब उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया तो उन श्रावकों ने भी स्थानकों में जाकर उपासना करनी छोड़ दी व स्वामीजी के प्रति श्रद्धाशील रहे । एक दिन का संयोग, वे श्रावक बाजार की एक दुकान में सामायिक व पौषध कर रहे थे कि उधर से जोधपुर राज्य के दीवान श्री फतेचंदजी सिंघवी का निकलना हुआ, श्रावकों को बाजार में उपासना करते देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ, व उन्होंने अपना कौतूहल शान्त करने के लिए जिज्ञासा की। उस समय तेरह श्रावक सामायिक-पौषध में संलीन थे व उनमें प्रमुख श्री गेरूलालजी व्यास थे। श्री गेरूलालजी ने भिक्षु स्वामी के आचार्य रुघनाथजी के संघ से अलग होने की बात सविस्तार बताई व उसके कारणों पर भी प्रकाश डाला। दीवान फतेचंदजी ने भिक्षु स्वामी के साहस की प्रशंसा करते पूछा, "वे कितने साधु है ?" उत्तर मिला-"तेरह।" तेरह को मारवाड़ी भाषा में 'तेरा' भी बोला जाता है। पास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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