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________________ १२ ने प्रभो ! तेरापंथ हर नई क्रान्ति का विरोध होता ही है । यही भिक्षु स्वामी के साथ हुआ । उन्हें गांव-गांव में स्थान देने का निषेध किया जाने लागा, आहार- पानी देने की नाही की गई, किसी को उनके पास फटकने तक नहीं दिया जाता । चातुर्मास के लिए कोई स्थान दे देता तो उससे बलात् या प्रलोभन देकर स्थान छुड़वाया जाता या गांव छुड़ाने तक के प्रयास किए जाते, और उनके पास दीक्षा लेना तो दूर, कोई गृहस्थ उनके पास पहुँच तक नहीं पाता और अगर कोई जाता तो केवल उन्हें त्रास देने की दृष्टि से ही जा पाता । वे अपने सन्तों को इकट्ठा कर व्याख्यान देते तो लोग शोर मचाना प्रारम्भ कर देते या उत्पात मचा देते। उनसे चर्चा के बहाने आकर कोई उनके सिर में ठोला मार देता, तो कोई उनके छाती पर मुक्का मारकर चला जाता, पर उन्होंने यह सब कुछ प्रसन्नता से सहन किया । उद्भवकालीन परिस्थितियों का वर्णन स्वामीजी ने स्वयं अपने संस्मरणों में इन शब्दों में किया है— " हम लोगों ने जब आचार्य रुघनाथजी को छोड़ा तब पांच वर्ष तक पूरा आहार- पानी नहीं मिला, घी आदि सरस पदार्थों के मिलने मिलाने का तो प्रश्न ही नहीं था । कपड़े के लिए भी कदाचित् सवा रुपये की कीमत वाली मोटी खादी (बासी) मिलती तो भारमल निवेदन करता कि आप इसकी पछेवड़ी (उत्तरीय वस्त्र ) बना लीजिये और मैं कहता ( भीखणजी) इसके दो चोल पट्टे (अधोवस्त्र) बना दो, एक तुम्हारे लिए व एक मेरे लिए। लोगबाग तो कोई आते नहीं, विरोध की भयंकर उग्रता में, उनसे किनारा कर लेते । हमको जितना रूखा-सूखा आहार मिलता, उसे लेकर हम सब साधु जंगल में चले जाते, वृक्षों की छाया में आहार रखकर कड़ी धूप में सब साधु आतापना लेते और शाम को वापस गांव में आ जाते । हमने यह कल्पना भी नहीं की थी कि हमारा संघ चलेगा, साधु-साध्वी दीक्षित होंगे या श्रावक-श्राविकाओं का संघ बनेगा । हमने तो एक ही संकल्प ले रखा था कि मरकर समाप्त होना स्वीकार है पर आत्मोन्मुख होकर शुद्ध करेंगे, कर्म - बन्धन से मुक्त होकर आत्मा की कार्यसिद्धि करेंगे ।" साधुत्व का आराधन अवश्य उपरोक्त शब्दों में भिक्षु स्वामी के लोमहर्षक कष्टों की गाथा स्वतः बोल रही है । इन कष्टों के कारण भिक्षु स्वामी के साथ जो तेरह साधु सत्य क्रान्ति की राह पर चले थे, उनमें छः-सात साधु विचलित हो गए व मात्र छः साधु ही रह गये और स्वामीजी जैसे प्रखर, मेधावी एवं श्रमनिष्ठ उपदेष्टा के प्रयास के उपरान्त भी लगभग छत्तीस वर्ष तक फिर तेरह साधु न हो सके, । इतना ही नहीं, स्वयं स्वामीजी की भावना भी लोकोपकार के प्रति कम हो गई और उन्होंने मात्र आत्मकल्याण का मार्ग चुनकर तपस्या, आतापना आदि का सतत क्रम चालू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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