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________________ तेरापंथ का उदयकाल ११ ऐतिहासिक स्थली बन चुकी है। स्वामीजो से सम्बद्ध होने से जैतसिंह जी अमर हो गए। आचार्य रुघनाथजी, भिक्षु स्वामी के वापस आने की प्रतीक्षा करते रहे पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी। एक बार छूटा हुआ तीर वापस नहीं आता, सिंह कभी मुड़कर पीछे नहीं देखता, यही स्थिति उस समय बनी। आचार्य महाराज चितित हो उठे और श्रावकों को लेकर छतरियों पर पहुंचे और उन्होंने मधुर स्वरों में कहा, "भीखन ! टोला छोड़कर मत जाओ, पंचम कलिकाल में निभ नहीं सकोगे, मेरी बात मान लो।" उनका रोष उतर चुका था, पर भिक्षु स्वामी भी अब दृढ़ हो चुके थे। उन्होंने कहा, "मैं शुद्ध संयम की साधना के लिए कृतसंकल्प हूँ।" श्री रुघनाथजी महाराज ने जब यह सुना तो उनकी रही-सही आशा टूट गई, और उनकी आंखें भर आई। अपने संघ के चरित्रनिष्ठ एवं प्रभावक सदस्य अन्य चार शिष्यों के संघ छोड़ने से वे व्यथित हो उठे। जब मिठास से काम नहीं बना तो गुरु महाराज ने धमकी भरे स्वरों में कहा, “अच्छा देख लूंगा । तुम जहां जाओगे, आगे तुम और पीछे मैं रहूँगा, तुम्हारे पीछे सैकड़ों लोग लगा दूंगा, फिर तुम कैसे रहोगे ?' गुरु की चेतावनी को भिक्षु स्वामी ने वरदानस्वरूप स्वीकार करते हुए कहा, "यह शुभ है कि मैं आगे रहूँगा और आप मेरे पीछे सैकड़ों लोग (अनुगामी) लगा देंगे। मेरे में परीषह सहने की क्षमता है, मेरा मार्ग स्वतः प्रशस्त हो जाएगा।" बगड़ी से विहार कर स्वामीजी बड़लू पधारे, आचार्य रुघनाथजी भी वहां आए, चर्चा हुई। अंत में उन्होंने कहा, "इस कलिकाल में दो घड़ी शुद्ध साधुत्व की आराधना कर ले, तो केवलज्ञान हो सकता है ।" स्वामीजी ने कहा, "मैं दो घड़ी सांस रोककर एक स्थान पर बैठ सकता हूँ, यदि इसी से केवलज्ञान हो सकता हो तो फिर क्या चाहिए ? पर ऐसा होता नहीं।" इससे प्रकट है कि उस समय भी भिक्षु स्वामी श्वास रोककर दो घंटे बैठने की क्षमता रखते थे व विरल साधक थे। सम्भवतः आचार्य रुघनाथजी का यह अन्तिम प्रयास था, पर सत्यक्रान्ति की जो धारा प्रवाहित हो चुकी थी, वह न रुकी, न मुड़ी। भिक्षु स्वामी के अभिनिष्क्रमण के समय उनके सहित पांच साधु रघनाथजी महाराज के संघ से पृथक हुए, राजनगर में संवत् १८१४ में चातुर्मास करने वाले आचार्य जयमलजी के संघ के मुनि थिरपालजी, फतेहचन्दजी, बख्तमलजी, भारमलजी व उनके दो सहयोगी मुनि लिखमीचन्दजी व गुलाबजी भी विचारसाम्य के कारण उनके साथ हो गए। उसी तरह राजनगर में संवत् १८१६ में चातुर्मास करने वाले आचार्य श्यामदासजी के संघ के दो साधु रूपचन्दजी व पेमचन्दजी भी भिक्षु स्वामी के साथ हो गये । इस तरह तेरह साधुओं ने एक नई सत्य-क्रान्ति का सूत्रपात किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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