SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० हे प्रभो ! तेरापंथ सामने रखे । संवत् १८१६ (विक्रम संवत् १८१७ ) की चैत्र शुक्ला नवमी रामनवमी का मंगल दिन था । उस दिन अभिनिष्क्रमण की कोई निश्चित योजना नहीं थी, पर ऐसा लगता है कि अप्रत्याशित रूप से भिक्षु स्वामी के लिए निर्णय का समय आ गया था । ज्योंही उन्होंने अपने गुरु महाराज से विनयपूर्वक अपनी बात रखी कि वे उसे अपने अहं पर चोट मानकर खीझ उठे और रोष भरकर उन्होंने कहा, "बारबार एक ही रट लगाई जा रही है, तुम लाख कहो, मैं तुम्हारी एक भी बात नहीं सुनता। इस कलिकाल में शुद्ध साधुत्व की पालना असम्भव है, तुम में साहस हो तो यहां से निकल जाओ और कुछ कर दिखाओ पर ध्यान रहे, यहाँ आकर फिर मुझे मुँह मत बताना ।” भिक्षु स्वामी का धैर्य चरम सीमा पर पहुँच चुका था, उनके जैसा सिंह - पुरुष ऐसी चुनौती से कब घबराने वाला था । वे तत्काल स्थानक छोड़ कर सत्यक्रान्ति के मार्ग पर चल पड़े। उनके साथ अन्य मुनिजन टोकरजी, हरनाथजी, वीरभाणजो व भारमलजी ने भी स्थानक का परित्याग कर दिया। आचार्य रुघनाथजो ने, इस आशा से कि भिक्षु स्थान न मिलने पर वापस आ जाएगा, सेवक द्वारा सारे नगर से भिक्षु को स्थान न देने के लिए, श्री संघ की सौगन्ध दिलवाने की आज्ञा प्रसारित करा दी, फलतः भिक्षु स्वामी को बगड़ी में कोई स्थान ठहरने को नहीं मिला । यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि जिस बगड़ी में, भिक्षु स्वामी की गृहस्थावस्था का ससुराल था, जहां उनके अन्य सम्बन्धी भी रहते होंगे क्योंकि उनकी जन्मस्थली कंटालिया गांव भी पास ही था, जहाँ उनकी संयम-साधना से प्रभावित अनेक व्यक्ति भी रहे होंगे, वहां सब कुछ fact योजना के अप्रत्याशित रूप से, होने के कारण, उन्हें स्थान नहीं मिला । भिक्षु स्वामी ने बगड़ी से विहार कर दिया पर उनकी कसौटी होना अभी शेष था, गांव के बाहर जाते ही आंधी और तूफान आ गया, जिसमें साधु आंधी और तूफान में चलने से, यत्ना न रह पाने के कारण, विहार नहीं कर सकते। गांव में स्थान नहीं, बाहर जाना नहीं, ऐसी स्थिति में एकमात्र स्थान श्मशान की छत्रियों में उन्हें ठहरना पड़ा । जहाँ किसी भी व्यक्ति का अन्तिम पड़ाव होता है, वहां भिक्षु स्वामी व उनके सहयोगी साधुओं का पहला पड़ाव हुआ । सच है, जो मृत्यु को अनुभव कर सकता है, वही जोवन का आनन्द ले सकता है । कहते हैं उस समय वहां नव छत्रियां थीं, पर एक को छोड़कर, वे सभी भग्नावशेष हो गईं और बगड़ी के भूतपूर्व सामंत जैतसिंह की स्मृति में बनी छत्री, जहां क्रान्ति का शंखनाद फूंकने के समय भिक्षु स्वामी के प्रथम चरण पड़े थे, अविचल भाव से अब भी खड़ी है। अब तो उस छत्री को काफी मजबूत किया जा चुका है और वह तेरापंथ की १. स्वीकृत तथ्यों के विश्लेषण के आधार पर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy