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________________ - हे प्रभो ! तेरापंथ स्थापना हुई । तेरापंथ धर्मसंघ में राजनगर को 'बोधिस्थल' के नाम से जाना जाता है और इसकी गणना इतिहास- स्थल के रूप में की जाती है । विद्रोह के स्वर I भिक्षु स्वामी ने उस चातुर्मास में जैन आगमों का दो बार गहराई से अध्ययन किया तो उन्हें लगा कि धर्मसंघों में सम्यक्त्व व चारित्र दोनों की कमी है । उन्होंने श्रावकों को अपना निष्कर्ष बताया तो वे प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा, "आप जैसे मेधावी अध्यात्म- पुरुष से यही अपेक्षा थी ।" अपने साथी साधुओं को भी उन्होंने अपना मन्तव्य बताया और वे सब उनसे सहमत हुए । भिक्षु स्वामी को सत्यदर्शन हो जाने के बाद भी वे अधीर नहीं हुए, उन्होंने विनयपूर्वक अपना fotosर्ष अपने गुरु महाराज के पास रखने का विचार किया । यह उनकी सही सत्याग्रही वृत्ति का परिणाम था । चातुर्मास - समाप्ति पर उन्होंने श्रावकों को आश्वस्त किया कि वे आगमोक्त शुद्ध आचार पर चलने व सही मान्यताओं की प्रस्थापना करने को कटिबद्ध हैं पर वे अपने गुरुदेव के सम्मुख निष्कर्ष प्रकट करने के बाद ही निश्चित कार्यक्रम अपनाएंगे। राजनगर से मारवाड़ की ओर जाते समय रास्ते में छोटे-छोटे गांव आने से वीरभाणजी व एक साधु को अलग विहार करवाया व दो साधुओं के साथ भिक्षु स्वामी स्वयं अलग विहार करने लगे । वीरभाणजी आचार्य महाराज के पास पहले पहुंच गये व भिक्षु स्वामी की चेतावनी के उपरान्त भी, बात न पचा सकने के कारण, उन्होंने आचार्य महाराज को राजनगर की सारी स्थिति व भिक्षु स्वामी के निष्कर्षो से अवगत करा दिया । आचार्य महाराज उनकी बातों को सुनकर उदास और अन्यमनस्क हो गए व भिक्षु स्वामी जब उनके पास पहुँचे तो उन्होंने पाया कि आचार्य महाराज की दृष्टि में स्नेह का स्रोत सूख गया है । स्थिति को उन्होंने भांप लिया व सोचा कि अब उतावलेपन से कार्य बनने वाला नहीं है । उन्होंने अपने गुरु के प्रति पूरी भक्ति प्रकट कर, पुनः विश्वास सम्पादन किया। वे शनैः-शनैः गुरु को अपनी आगमोक्त विचारधारा व साधुत्व के सही आचार पालन करने के लिए निवेदन करते रहे, पर उन्हें सहमत नहीं कर सके । भिक्षु स्वामी मात्र सिद्धान्त पर अडिग रहने वाले ही व्यक्ति नहीं थे पर संवेदनशील भी थे व अपने गुरु के प्रति अनन्य भक्ति के कारण, वे उन्हें भी सन्मार्ग पर चलने के लिए निवेदन करते रहे । आचार्य रुघनाथजी महाराज का गृहस्थावस्था में जोधपुर राजघराने से संबंध था, संवत् १७८७ के जेठ वदि २ को आचार्य भूधरजी के हाथों जोधपुर में उनकी दीक्षा हुई, तब जोधपुर राज्य का पूरा लवाजमा (दो हाथी, एक हजार घोड़े, रिसाला, पलटन, सैकड़ों सरदार, जागीरदार, अमीर-उमराव ) दीक्षा महोत्सव में सम्मिलित हुआ था । दीक्षा के बाद आचार्य पद प्राप्त करने व एक विशाल धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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