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________________ तेरापंथ का उदयकाल इन मान्यताओं का श्रावकों पर प्रभाव पड़ा और उन्हें परम्परागत श्रद्धा आचार ठीक नहीं लगे । शंकाशील हो गए, उनमें आचार्य रुघनाथजी के श्रावक भी थे, जिनमें प्रमुखतः चतरोजी पोरवाल थे व उनके साथ अन्य कई ओसवाल पोरवाल श्रावक थे । उन्होंने विद्रोह का झण्डा उठाया व साधुओं को वंदना करना बंद कर दिया । आचार्य रुघनाथजी महाराज उस समय मारवाड़ में थे । उन्हें राजनगर के श्रावकों के विद्रोह की जानकारी मिली, तो उन्होंने भिक्षु स्वामी को सक्षम व योग्य समझकर, श्रावकों की शंका समाहित करने के लिए संवत् १८१५ का चातुर्मासिक प्रवास राजनगर में करने हेतु भेजा । भिक्षु M गुरु- आज्ञा शिरोधार्य कर अपने सहयोगी मुनि टोकरजी, हरनाथजी, वीरभाणजी व भारमल जी के साथ राजनगर में आकर चातुर्मास किया । चातुर्मास के प्रारम्भ में ही श्रावकों ने साध्वाचार के विरुद्ध अनेकानेक अभियोग उनके समक्ष रखे । भिक्षु स्वामी ने अपने बुद्धिबल व वाक्पटुता से प्रभावित कर उन्हें चरण स्पर्श कर साधु वन्दना के लिए राजी तो कर लिया पर न तो उनके मन की शंकाएं निरस्त हुईं और न भिक्षु स्वामी का अन्तर्मन ही संतुष्ट हुआ । उन्होंने आगमों का गहराई से अवलोकन करने व श्रावक समाज को सही समाधान देने का संकल्प लिया और अपने गुरु का सम्मान रखने के लिए अपने बुद्धि-कौशल से कुछ समय तक उनके विद्रोह का शमन कर दिया । ॐ संयोग की बात, जिस दिन श्रावकों को वन्दना करवाना प्रारम्भ किया, उसी रात भिक्षु स्वामी को मन के गहरे अंतर्द्वद्व व उससे उत्पन्न अनुताप के कारण तीव्र ज्वर का प्रकोप हो गया । शीत ज्वर की भयंकर कंपकंपी और घोर वेदना के साथ, उनके विचारों में तुमुल संघर्ष मच गया। प्रवंचना की प्रताड़ना में उनकी आत्मा मर्माहत हो उठी व उन्हें तीव्र पश्चाताप व आत्मग्लानि के भाव कचोटने लगे, “मैंने अनर्थ कर दिया, श्रावकों की सच्ची बात को झूठा ठहराया, इस समय मेरी मृत्यु हो जाय तो मेरी क्या गति होगी ? गुरु का झूठा सम्मान रखने के लिए भगवान् के वचनों को उत्थापित कर मैंने कितना बड़ा पाप किया है ? मेरे दुर्गति को रोकने में गुरु कहां तक सहायक होंगे ?" भिक्षु की आत्मा पवित्र भावनाओं से भावित हुई और उन्होंने उसी समय प्रतिज्ञा की, “यदि मैं अस्वस्थता से मुक्त हुआ तो मैं निष्पक्षभाव से सत्य मार्ग को अपनाऊंगा। जिनेश्वरदेव के प्रस्थापित सिद्धान्तों के अनुसार चलूंगा और इसमें मैं किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखूंगा ।" इस संकल्प के साथ ही अन्तर्द्वन्द्व का निराकरण हो गया व उनका ज्वर उतर गया । इस तरह राजनगर में भिक्षु स्वामी के आभ्यन्तर नेत्रों का उन्मेष हुआ और उनके जीवन में निर्मल धर्मनीति का प्रादुर्भाव व उसकी शाश्वत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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