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________________ आचार्यश्री भिक्षु की मान्यताएं व मर्यादाएं १६७ - साधना का मार्ग बताया, उपदिष्ट किया वही सच्चा धर्म है । ऐसे देव, गुरु, धर्म की आराधना भगवान् की आज्ञा में है व अन्य देव, गुरु, धर्म की आराधना भगवान् की आज्ञा में नहीं है । आचार्य भिक्षु के शब्दों में देव अरिहंत ने गुरु शुद्ध साध छ, "केवलि भाख्यो ते धर्म रे । और धर्म में नहीं जिनाज्ञा, तिण सुं लागे पाप कर्म रे ॥ इसी प्रसंग में संसार में चार बातें मंगलमय, उत्तम एवं शरण-स्थल हैं, जिन्हें अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं केवली प्रणीत धर्म के नाम से सम्बोधित किया गया है । इनके सिवाय अन्य कोई वस्तु तत्त्व या बात श्रेय या उपादेय नहीं है । आचार्य भिक्षु के शब्दों में च्यार मंगल, च्यार उत्तम कह्या, व्यार शरणा कह्या जिनराय रे, ए सगला छै, जिन आज्ञा मझे, आग्या बिन अन्य आछी वस्तु न कोय रे । ७. संयम, ब्रह्मचर्यं कल्पनीक आचार, ज्ञान, धर्म क्रिया, सम्यकदृष्टि, सत्बोध, सन्मार्ग, जिन आज्ञा में है । असंयम, कुशील, अकल्प्य, आचार, अज्ञान, पाप क्रिया, मिथ्यात्व, अबोध एवं उन्मार्ग में प्रवृत्त होने से कर्मों का बंधन होता है, आत्मा अशुद्ध हो जाती है तथा निर्वाण प्राप्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, अत: वह जनाज्ञा में नहीं है । आचार्य भिक्षु के शब्दों में आठ छोड्या ते जिन उपदेश सुं, पाप कर्म तणो बंध जाण रे जिन आज्ञासु आठ आदर या तिण सु पामें पद निर्वाण रे आचार्य भिक्षु द्वारा प्रस्थापित उपरोक्त मान्यताएं इतनी सुस्पष्ट व सरल हैं कि उनमें संशय या असहमति करना किसी प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए न तो सम्भव है और न उचित ही है । आचार्यश्री भिक्षु ने उपरोक्त मान्यताओं की प्रस्थापना में अपनी निर्मल प्रज्ञा से नीर-क्षीर विवेक का परिचय दिया है और उन्होंने उपरोक्त मान्यताओं के आधार पर सिद्धान्त विकृति और शिथिलाचार पर कड़ा प्रहार किया और जब अन्य लोगों के स्वार्थ हित-साधना में बाधा उत्पन्न हुई और उनके पाखण्ड का पर्दाफाश हो गया, तब आचार्य भिक्षु के विरुद्ध उन्होंने झूठे और अनर्गल आरोप लगाए व नानाविध कष्ट दिए । पर आघात - प्रत्याघात के भंवरों में रुके बिना आचार्य भिक्षु अविरल गति से आगे बढ़ते रहे तथा उनके द्वारा प्रेरित धर्म क्रान्ति सुस्थिर हो गई । आलोचना और आरोपों का निरसन करते आचार्य भिक्षु ने अनेक प्रकार से समाधान दिया, जिसमें उनकी उपरोक्त मान्यताओं को विस्तार मिला। ऐसे कुछ -विषयों पर आचार्य भिक्षु के उद्गार बताना यहां समीचीन होगा १. धर्म और अधर्म का मिश्रण नहीं होता, हिंसा से कभी धर्म नहीं हो सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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