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१६६ हे प्रभो ! तेरापंथ
भला परिणाम में जिण आगन्या, माठा परिणाम आज्ञा बाहर रे भला परिणामां निर्जरा निपजे, माठा परिणामां पाप द्वार रे
-जिन आज्ञा री चौपी १/१४-१५ ४. चार प्रकार के ध्यान में आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान अधर्म हैं तथा भगवान की आज्ञा में नहीं है और धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान, धर्म हैं तथा भगवान की आज्ञा में हैं। इसी प्रकार तेजो, पद्म, शुक्ल लेश्या तीनों शुभ हैं तथा धर्म हैं, अतः भगवान की आज्ञा में हैं । पर कृष्ण, नील, कापोत तीनों अशुभ लेश्याएं अधर्म हैं, तथा जिनाज्ञा में नहीं हैं। आचार्य भिक्षु के शब्दों में
धर्म ने शुक्ल दोनं ध्यान में, जिन आज्ञा दी बारंबार रे आरत, रुद्र, ध्यान माठा बेहूं, योंने ध्यावेते आज्ञा बाहर रे तेज, पद्म, शुक्ल, लेश्या भली, त्यांमें जिन आज्ञा ने निर्जरा धर्म रे तीन माठी लेश्या में आज्ञा नहीं, तिण सु बंधे पाप और कर्म रे
5. मन, वचन, काया से त्रिविध हिंसा न करने को दया कहा है और जहां संयम, चरित्र या धर्म की अभिवृद्धि होती है, ऐसे दान को मोक्ष का मार्ग बताया गया है। ऐसी दया और दान भगवान् की आज्ञा में है, पर हिंसा या असत् दान भगवान् की आज्ञा में नहीं है। इसी प्रकार आत्म-निर्मलता की दिशा में किया गया उपकार, मोक्ष मार्ग है पर भौतिक अभिसिद्धि या शारीरिक सुविधा जुटाने की दिशा में किया गया उपकार, संसारिक बंधनों की वृद्धि करने वाला होने से, अधर्म है तथा उसमें जिनाज्ञा नहीं है। आचार्य भिक्षु के शब्दों में
'मन, वचन, काया रा जोग तीनई, सावद्य, निर्वद्य जाणों निरवद्य जोगों री जिन आगन्या, तिण रो करो पिछाणों ।' 'त्रिविधे, त्रिविधे छः काय हणवी नहीं, आ दया कहीं जिनराय हो दान देणो सुपातर ने कहयो, तिण सुं भुगत सुखे जाय हो ।' 'उपकार करे कोई मोखरो, तिणरी जिन आगन्या दे आप उपकार करे संसार नो, तिहों रहे आप चपचाप ॥' "उपकार करे कोई मोख रो, तिण में निश्चेई धर्म साख्यात
उपकार करे संसार नो, तिण में धर्म नहीं तिलमात ॥' ६. संसार में तीन तत्त्व श्रेष्ठ हैं जो देव, गुरु और धर्म हैं । अहंत भगवान्, जो राग-द्वेष से विरत हो चुके हैं, वे सच्चे देव हैं । सांसारिक मोह-माया ने दूर, तथा आंतरिक कषायों की ग्रन्थि को छिन्न-भिन्न करने वाले और वीतराग साधना के पथ पर सतत् चलने वाले निर्ग्रन्थ सच्चे गुरु हैं। वीतराग प्रभो ने, जो आत्म
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