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आचार्यश्री भिक्षु की मान्यताएं व मर्यादाएं.. १६५.
आज्ञा में हैं | आचार्य भिक्षु के शब्दों में
'सर्व विरत धर्म साधु तणो, देश विरत श्रावक रो धर्म रे यां दोनू धर्म में जिन आगन्या, आग्या बारे तो बंधसी कर्म रे 'सर्व मूल गुण, उत्तर गुण, देस मूल उत्तर गुण दोय रे यां दोनं गुणों में जिन आगन्या, आगन्या बारे गुण नहीं कोय रे" -- जिण आज्ञा री चौपी १/२०-१८
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'साधु, श्रावक, दोनूं तणी, एक अनुकंपा जाण इमरत सहु नो सारिखो, कूड़ी मत करो ताण'
साधु श्रावक नो एकज मार्ग, दोय धर्म बताया रे तण दोन्यू आग्या मोहे, मिश्र अणहुंतो ल्याया रे'
- अणुकम्पा २ दो - ३
-व्रताव्रत- १/२८
आचार्य भिक्षु की दृष्टि में आगार धर्म तथा अनागार धर्म के सिवाय तीसरा मिश्रित मार्ग वीतराग प्रभो द्वारा न तो प्रतिपादित है, न उनकी आज्ञा में है ।
३. आत्म धर्म की साधना के दो प्रकार हैं, जिन्हे संवर ( त्याग या संयम) और निर्जरा ( तपस्या या सम्यक् प्रवृत्ति) परिभाषित किया गया है। संवर में सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय तथा अयोग आदि बीस प्रकार की साधना से नये कर्मों क बंधन या आत्मा पर आच्छादन रुक जाता है और निर्जरा में बाह्य तपस्या तथा आंतरिक तपस्या, यथा— अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रस-परित्याग, काया-क्लेश, प्रतिसंलीनता, विनय, सेवा, ध्यान, स्वाध्याय, प्रायश्चित, कायोत्सर्ग से पूर्व संचित कर्मों के समूह को जिन्होंने आत्म निर्मलता को, अवरुद्ध कर रखा है, तोड़ने, काटने या हटाने की प्रक्रिया वेगवती हो जाती है, को ही आचार्य भिक्षु ने धर्म बताया तथा वीतराग प्रभो की आज्ञा में बताया और इसके सिवाय अन्य सारी क्रियाओं को पापकारी, अधर्म एवं वीतराग प्रभो की आज्ञा के बाहर बताया । आचार्य भिक्षु के शब्दों में
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बीस भेदों रुके कर्म आवता, बारे भेदों कहे बांध्या कर्म रे त्योंरी देवे जिनेश्वर आगन्या, ओहिज जिन भाष्यो धर्म रे कर्म रुके तिण करणी में आगन्या, कर्म कटे तिण करणी में जांण रे यां दोयों री करणी बिन नहीं आगन्या, ते
सगली सावद्य पिछोंण रे ।
- जिन आज्ञा री चौपी १ / ५-६
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