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१६८ हे प्रभो ! तेरापंथ
एवं मात्र अनिवार्यता उपयोगिता तथा कुछ की हित साधना हेतु किए गए हिंसाजन्य, कार्यों को धर्म की कोटि में नहीं लिया जा सकता और आत्म-साधना का हेतु, धर्म लौकिक कार्यों से कभी सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। शुद्ध धर्म या एकांत भधर्म के सिवाय मिश्र धर्म नाम की कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं हो सकती और न वह जिन भगवान् की आज्ञा में ही है, आचार्य भिक्षु के शब्दों में--
"हिंसा री करणी में दया नहीं छै, दया री करणी में हिंसा नाहीजी दया ने हिंसा री करणी छै न्यारी, ज्यूं तावड़ो ने छांहीजी "और वस्तु में भेल कै पिण दया में नहीं हिंसा रो भेलो जी ज्यं पूर्व ने पिछम रो मार्ग, किण विध खावे मेलो जी "पाप अठारे सेव्यों एकंत पाप, ते नहीं सेव्यों धर्म होयो रे पाप धर्म री करणी छै न्यारी, पिण मिश्र करणी नहीं कोयो रे "पाप कियों धर्म न निपजे, धर्म थी पाप न होय, एक करणी में दोय न निपजे, ए संका म आणो कोय ।।
२. विशुद्ध दया और दान केवल वे ही हैं, जिनसे संयम का पोषण या वद्धि हो, सम्यक्त्व ज्ञान, दर्शन, चरित्र की आराधना हो और वीतराग प्रभो द्वारा बताए गए मार्ग पर सत्प्रवृत्ति हो। मोह-अनुकम्पावश किए गए कार्य या लौकिक कीर्ति हेतु दिए गए दान अथवा आत्म-शुद्धि के सिवाय अन्य उद्देश्य से की गई दया और दान को मोक्ष मार्ग की कोटि में मात्र दान या दया का नाम देकर समाहित नहीं किया जा सकता । आचार्य भिक्षु के शब्दों में
"जितरा उपगार संसार तणां छै, जेजे करे ते मोह वस जाणो। साधु तो त्यां ने कदे न सरावे, संसारी जीव तिण रा करसी बखाणो॥" "जीवों ने मारे, जीवो ने पोषे, ते ता मारग संसार नो जाणोजी। । तिण मांहे साध धरम बतावे, ते पूरा छ मूढ अयाणो जी॥" "सावद्य दान दियों, दया उथपे, सावद्य दया सुं उथपे अभयदान हो। ते सावद्य दया-दान संसार ना, त्योने ओलखे ते बुधवान हो॥"
"गाय, भैंस, आक, थोर नो, ए च्यारूं दूध । तिम अणुकम्पा जाण ज्यो, राखे मन में सुध ॥" "आक दूध पीद्यां थको, जुदा करे जीव काय । ज्यू सावद्य अणुकंपा, कियों, पाप कर्म बंधाय।" "भोलेइ मत भूलजो, अणुकम्पा रे नाम । कीजो अतर पारखा, ज्यूं सीझे आत्म काय ॥"
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