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________________ १३० हे प्रभो ! तेरापंथ और आपको नींद आने लगी, जिससे सब उल्लसित हुए, पर इसके उपरान्त भी बीमारी जटिल स्थिति में उलझती गई। कुछ लोगों ने बवण्डर खड़ा किया कि रंग-भवन में यक्ष रहता है और वह बीमारी ठीक नहीं होने देता, अतः उसे बदल देना चाहिए, पर आपने कहा कि 'यक्ष से मुझे कोई भय नहीं है। भय होगा तो भी सहेंगे पर स्थान की बदनामी नहीं होने देंगे, महत्त्व कम नहीं करेंगे।' पण्डित रघुनन्दनजी अत्यन्त प्रचुरता से उपचार कर रहे थे पर नियति के आगे पुरुषार्थ को भी हार माननी पड़ती है ।श्रावण वदी ३० के बाद आपका शोच-निवृत्ति हेतु बाहर जाना रुक गया। श्रावण सुदी १३ से प्रवचन एवं परिषद् में बैठकर प्रतिक्रमण करना चालू नहीं रह सका । रुग्ण अवस्था में भी आपपट्ट के नीचे उतरकर मंत्री मुनि को वंदना करते, वह भी बंद करना पड़ा। जनता में ऊहापोह मच गया। पण्डितजी हताश हो गए और मंत्री मुनि से कहने लगे, 'मेरी चिकित्सा विफल हो गई है । जनता में आक्रोश है, किसी अन्य कुशल चिकित्सक से उपचार कराएं। मैं साथ रहूंगा।' आचार्यवर ने उन्हें साहस बंधाते हुए कहा, 'पण्डितजी, प्रयत्न करना आपके हाथ में है, उसमें कोई कमी नहीं रही। सफलता विफलता का प्रश्न नियति से जुड़ा है। आपकी चिकित्सा से रोग नियन्त्रित रहा है, क्षीण न होने पर भी उपशान्त हुआ है, आप किंचित मात्र उदासीन न हों।' पण्डितजी का संकोच जाता रहा । निरन्तर गिरते स्वास्थ्य से मंत्री मुनि व्यथित हो उठे। दोनों की मित्रता गंगाजल की तरह स्वच्छ और निर्मल थी। उनमें एक-दूसरे का मानस प्रतिबिम्बित होता था, दोनों के सामने व्यक्तिगत हित के स्थान पर संघहित सदा सर्वोपरि रहा। माणकगणि के देहावसान की घटना के स्मरण मात्र से वे आन्दोलित हो उठे। उन्हें अनिष्ट की आशंका हो गई। उन्होंने आचार्यवर को व्यथा प्रकट की पर आपने दृढ़तापूर्वक कहा 'सब कुछ ठीक होगा। शरीर की समस्या असाध्य नहीं है।' मन्त्री मुनि ने साधुओं को सजग करते कहा, आचार्यवर की सेवा कर यत्किचित उऋण होने का यह अनुपम अवसर है, पढ़ना-पढ़ाना तो जीवन भर चलता रहेगा, अतः सेवा में कोई बिल्कुल प्रमाद न करे।' कितनी मार्मिक प्रेरणा थी। युवाचार्य मनोनयन भादवा वदी नवमी का दिन । डॉ० अश्विनीकुमार ने कलकत्ता से लौटकर आपके शरीर की परीक्षा की और उसके साथ ही उनकी आंखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। सुबकते हुए उन्होंने मंत्री मुनि के पास जाकर कहा, 'यह शरीर अब अधिक नहीं टिकेगा, आचार्यवर को भावी प्रबंध कर लेना चाहिए।' पण्डितजी ने भी डॉक्टर के कथन का समर्थन करते हुए कहा, 'रोग असाध्य है, अब कर्तव्य-पालन में देरी ठीक नहीं।' मंत्री मुनि के पास प्रमुख संत सर्वश्री मुनि कुंदनमलजी,. चौथमलजी, चंपालालजी, भीमराजजी, सोहनलालजी, खिन्नमना गुरुदेव को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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