SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवयुग का उदय व विकास १२९ ऑपरेशन कराने से मना कर दिया व जीवन के प्रति अनासक्त भाव प्रकट किया । आपके दृढ़ संकल्प के कारण, मुनि चौथमलजी ने चाकू से व्रण का ऑपरेशन किया, मवाद निकाला व गृहस्थ के यहां से मलहम लाकर पट्टी बांधी, जिससे कुछ आराम • मिला । आसाढ़ वदी ३ को आप भीलवाडा पधारे तथा डॉ० नन्दलालजी की देख-रेख में विधिवत् उपचार प्रारम्भ हुआ । आचार्यवर की अस्वस्थता का समाचार जानकर सर्वत्र चिन्ता व्याप्त हो गयी। डॉ० अश्विनीकुमार कलकत्ता से और डॉ० विभूतिभूषण लाडनूं से भीलवाड़ा आए । वे संघ के प्रति परम श्रद्धावान तथा आचार्यवर के अनन्य भक्त थे । उदयपुर के वरिष्ठ श्रावक भंवरलालजी डोसी के पुत्र मालमसिंह जी ईडर में डॉक्टर थे, वे भी पता लगने पर भीलवाड़ा आ गए। चारों डॉक्टरों ने विचार-विमर्श कर उपचार प्रारम्भ किया पर मूत्र परीक्षा से मधुमेह की बीमारी का पता लगने से घाव भरना संभव नहीं रहा । अश्विनीकुमार ने मधुमेह की औषधि देनी चाही पर आपने शंका के कारण नहीं ली। रोग बढ़ता गया और एक दिन डॉक्टर अश्विनीकुमार ने आंखों में आंसू भर कर मंत्री मुनि को कह दिया; 'रोग के लक्षण देखने से लगता है कि आचार्यवर स्वस्थ नहीं होंगे, शरीर नहीं रह पायेगा, आगे का आप सोच लें।' डॉक्टर ने अन्य किसी को यह अप्रिय बात नहीं कही । आचार्यवर भीलवाड़ा १४ दिन बिराजे, शरीर की शक्ति घटती गई पर वचनबद्ध होने के कारण अत्यन्त कष्टसाध्य होने पर भी गंगापुर के लिए प्रस्थान कर दिया । २५-३० मील का रास्ता एक सप्ताह से अधिक समय में तय हुआ । केवल मनोबल के आधार पर वे चले, वरना शरीर तो कभी का उत्तर दे चुका था । गंगापुर पधार कर श्री रंगलालजी हिरण के मकान में बिराजे, वहां आपने ५० मिनट तक धाराप्रवाह प्रवचन दिया । उस समय आपके साथ २४ साधु और २७ साध्वियां थी। संघ की प्रगति की अनेक संभावनाएं बन रही थीं, पर आपका स्वास्थ्य दिन पर दिन चिन्तनीय बन रहा था। अब तक लीवर विकृत हो चुका था, सारे शरीर में शोथ फैल चुका था, ज्वर सतत रहने लगा, खांसी सताने लगी तथा अन्न की अरुचि हो गई । केवल देखने वाले या सर्वज्ञ भगवान ही जानते हैं कि उस भयंकर बीमारी से आप अविचल योद्धा की तरह निडर होकर कैसे जूझ रहे थे या जिन कल्पिक मुनि की तरह उसे कैसे समभाव से सहन कर रहे थे ? आयुर्वेदाचार्य व आपके परम भक्त श्रीरघुनन्दनजी पण्डित भी आ गए। उन्होंने भी निदान कर उपचार प्रारम्भ किया पर रोग शांत नहीं हुआ। उन्होंने जयपुर के अनुभवी वैद्य छीरामजी को २१ पद्यों का संस्कृत भाषा में पत्र लिखा और रोग निदान तथा चिकित्सा का वर्णन कर परामर्श चाहा । स्वामी लछीरामजी ने उनकी चिकित्सा का पूर्ण समर्थन करते अन्त में लिखा, 'रोग कष्ट साध्य है, अवस्था वृद्ध है, रोगी अशक्त है, वर्षाऋतु उपद्रव कर रही है, ये सारी स्थितियां प्रतिकूल हैं ।' पण्डितजी फिर कुछ नयी औषधियां मिलाकर उपचार किया तो खांसी का वेग बंद हो गया 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy