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________________ १२८ हे प्रभो ! तेरापंथ इतना होते हुए भी शासन व्यवस्था में उनका हस्तक्षेप स्वीकार नहीं था। छोगांजी ऋजु, सरल, तपोमय और जागरूक व्यक्तित्व की धनी थीं और आप महान् माता के महान् पुत्र थे। मंत्री मुनि मगनलालजी को भी वे अनुशासन की पालना के लिए, कभी-कभी उलाहना दे देते थे। पर इसके उपरांत भी वे उनका अत्यधिक सम्मान करते थे । जीवन के अंतिम दिनों में मंत्री मुनि ने शिक्षा फरमाने को कहा तो आपने कृतज्ञ भाव प्रकट करते हुए कहा कि 'उन्होंने जो शिक्षा दी उससे दोनों ने बड़ी-बड़ी घाटियों को लांघा है।' सरदारशहर में एक बार श्रीचंदजी गधैया और बालचंदजी सेठिया के बीच मनमुटाव होने पर आपने वहां साधु-साध्वी न भेजने की बात कही, तो दोनों ने तत्काल आपस में क्षमा-याचना की। संवत् १९८१ में भयंकर सर्दी में भी आचार्यवर ने अपने भक्त श्रावक श्रीचंदजी गधैया के आग्रह पर बीदासर से संघ सहित विहार कर सरदारशहर में मर्यादा महोत्सव मनाया। आचार्यवर समय-समय पर अपने शिष्यों (मुनि तुलसी सहित) की गेय रागिनियों के विषय में, संस्कृत विभक्ति या संधि विच्छेद, उच्चारण, स्वाध्याय, तपस्या आदि के बारे में परीक्षा लेते और प्रोत्साहन देते। अंतिम वर्षों में आपने मुनि तुलसी को साधुओं को अध्ययन कराने का काम सौंपा और उनके विद्या-अभ्यास का स्वयं ने पूरा ध्यान रखा। आप श्रावकों और सामान्य जन के, सभी के लिए भक्त-वत्सल थे। संघ के हर कार्य में आप सजग रहते । मनि शिवराज जी आपके दैनिक कार्यों में हर सम्भव सहयोग करते, ताकि संघ के हर सदस्य के प्रमाद का परिमार्जन हो जाए। अस्वस्थता संवत् १९९३ ग्रीष्मकाल में आचार्यप्रवर मालवा की यात्रा सम्पन्न कर, थली प्रदेश जाने की भावना लिये मेवाड़ पधार रहे थे, कि जेठ वदि १० के दिन जावद शहर के पास आपके बांए हाथ में एक छोटी-सी फुसी उठी, जिसमें चुभन की पीड़ा लगने से कांटे की आशंका से उसे मुनि चौथमलजी ने कुरेदा, तो कांटा तो नहीं मिला, पर पीडा बढ़ गई और व्रण निकल गया। चित्तौड़ तक आते-आते व्रण का विस्तार हो गया, वेदना बढ़ गई, शोथ अधिक हो गया और समूची हथेली में फैल गया, आटे की पुलटिस बांधी तो वह पीप से भर गयी। हाथ में टीस होने लगी। गर्मी की परेशानी में आहार की रुचि और नींद में कमी हो गयी। चलना, उठना, बैठना, सोना सभी कुछ बोझिल हो गए। रात्रि का व्याख्यान तुलसी मुनि देने लगे। गंगापुर के श्रावकों की प्रार्थना पर आपने गंगापुर चातुर्मास फरमाया। पुलिस 'अधीक्षक भीलवाड़ा मदनसिंहजी मुरड़िया के निवेदन पर आपने भीलवाड़ा पधारने का निश्चय किया। मार्ग में मंडपिया गांव में आषाढ़ कृष्णा१ को डॉक्टरों का दल पहुंचा और परीक्षा कर कहा, 'व्रण का तत्काल ऑपरेशन होना जरूरी है।' आचार्यवर ने गृहस्थों अपरेशन कराने व अपने लिए दवाई लाने की आशंका से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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