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________________ नवयुग का उदय व विकास १२७ 'शिशु मुनिवर सुविसेख, क्रिया नित्य निर्मल करो। रंच न चूको रेख, देख देख पगला धरो॥' इन पदों में अपने भावी उत्तराधिकारी को उन्होंने कितनी गहरी शिक्षा दे दी। अपने प्राणधाती व्रण की भयंकर वेदना में वे प्रतिदिन भक्तामर का पाठ करते। सिलाई, रंगाई, रजोहरण की कला का आपके युग में बहुत विकास हुआ। आपने संवत् १९८७ में मुनि घासीरामजी को खानदेश, बरार, हैदराबाद, संवत् १९८६ में मुनि सूरजमलजी को बम्बई, संवत् १९६० में मुनि चंपालालजी को जबलपुर, संवत् १९९२ में मुनि कानमलजी को बम्बई, पूना, अहमदनगर आदि अनेक सुदूर प्रदेशों में ज्ञान, दर्शन, चरित्र की वृद्धि हेतु भेजा । इस प्रकार तेरापंथ का प्रचार क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया। आपके शासनकाल में श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा और तेरापंथी विद्यालय की स्थापना हुई, कई सामयिक प्रवृत्तियों ने जन्म लिया। आचार्यवर के समय में यह निश्चित हो गया कि ज्ञान, दर्शन, चरित्र की जहां वृद्धि हो, वे सभी प्रदेश आर्य क्षेत्र हैं और वहां साधु जा सकते हैं । आपके समय में श्रीमद् जयाचार्य कृत,'भ्रम विध्वंसनम्' नामक वृहद् तात्त्विक ग्रंथ का मुनि'चौथमलजी और पण्डित रघुनन्दनजी ने सम्पादन किया एवं ईसरचंद जी चोपड़ा ने उसे प्रकाशित करवाया। इसी तरह श्रीमद् जयाचार्य के अन्य ग्रंथ 'प्रश्नोत्तरे तत्त्व बोध' को गुलाबचंद जी लूणिया ने संपादन कर प्रकाशित करवाया। आपने अनेक आगम ग्रंथों को संस्कृत टीकाओं के माध्यम से पढ़ना प्रारम्भ किया। संवत् १९७० में जर्मनी के प्रसिद्ध जैन साहित्य अध्येता डॉ० हर्मन जैकोबी जैन साहित्य सम्मेलन में जोधपुर आए। केशरीचंदजी की कोठरी (चूरू) के निवेदन पर उन्होंने आचार्यवर से मुख्यतः प्राकृत एवं संस्कृत में बातचीत की। तेरापंथ के संगठन, आचारशीलता और नेतृत्व से वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने एक युगल (हुलासमलजी तथा उनकी पत्नी मालूजी) को दीक्षित होते देखा। आचार चूला के एक पाठ (मच्छं वा मसं वा) पर विस्तृत चर्चा की और सही अर्थ समझा। जूनागढ़ में उन्होंने इस यात्रा को 'भगवान् महावीर' की साकार साधना देखने और आचार चूला का सही अर्थ समझने वाली यात्रा बताया । इटालियन विद्वान् डॉ०एल०पी० टसीटोरी, प्रो. गेल्सी, जयपुर के रेजिडेन्ट पिटरसन, आबू के ए० जी० जी०, जी० आर० हालेण्ड और उदयपुर के रेजिडेन्ट आदि कई पाश्चात्य विद्वानों ने आपके दर्शन कर आध्यात्मिक आह्लाद प्राप्त किया। __ आचार्यवर अपने मातुश्री छोगांजी के प्रति श्रद्धावनत थे और उनकी भावना का आदर करते। वे चातुर्मास के बाद उनके स्थिरवासी स्थान बीदासर पधार कर उनको सेवा का पूरा-पूरा अवसर देते । उनसे तथा मंत्री मुनि से वे विनोद मेंभी बात कर लेते, मातुश्री भी उनके आने का समाचार जानकर एकदम स्वस्थ हो जाती पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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