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१०२ हे प्रभो ! तेरापथ
सूक्ष्म अक्षरों में लिखे हुए थे, देना चाहा, पर आपने आवश्यकता नहीं कह उसको भी स्वीकार नहीं किया। अमरसी ऋषि ने आश्चर्यचकित होकर कहा, 'आप जैसा निर्लोभी व निस्पृह साधु मैंने आज दिन तक नहीं देखा।' अब तो अमरसी का
आत्मीय भाव और श्रद्धा आपके प्रति बहुत अधिक हो गई, काफी देर तक दोनों में बातें हुईं। अमरसी ने उन्हें यह भी बताया कि उनका शिष्य हत्या के आरोप में निरपराध फंस गया और दण्डित हुआ। वे उसे अपने सारे प्रभाव के उपरांत बचा नहीं सके, इसका उन्हें बहुत दुःख है। अमरसीजी ऋषि से सम्मान पाना आपके जीवन की व कच्छ, सौराष्ट्र में आपके धर्म प्रचार की असाधारण सफलता कहा जा सकता है। ध्रांगध्रा से विहार कर आप कच्छ में पुनः आए, श्री किस्तूरचंदजी को दीक्षा देकर संवत् १९५४ का चातुर्मास ६ संतों से बेला में किया। इसी चातुर्मास काल में सुजानगढ़ में आचार्य माणकगणि का एकाएक देहावसान हो गया। आपने चातुर्मास के बाद थली प्रदेश की ओर विहार कर दिया। आपकी कच्छ-सौराष्ट्र की यह अंतिम यात्रा थी फिर वर्षों तक उस क्षेत्र की सुधि भी नहीं ली गई।
संघ द्वारा चुनाव
तेरापंथ की शासन-व्यवस्था में भावी आचार्य को मनोनीत करने का अधिकार आचार्य को ही है। संयोग से आचार्य बिना मनोनयन किये स्वर्गस्थ हो जाएं तो आचार्य का निर्वाचन कैसे हो? इसके बारे में विधान में कोई प्रावधान नहीं है। श्रीमद् माणकगणि का एकाएक बिना मनोनयन किए, स्वर्गवास हो जाने से ऐसी स्थिति बनी जिससे सारा संघ चिन्तातुर हो गया, लोग तेरापंथ के विघटन की कल्पनाएं करने लगे। पर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा नहीं। गुरुकुलवास में रहने वाले मुनि श्री मगनलालजी, मुनिश्री कालूजी (छापर) (बाद में श्रीमद् कालूगणि) आदि १४ साधुओं ने निर्णय किया कि चातुर्मास के बाद सब साधु लाडनूं में एकत्रित हों, वहीं भावी आचार्य की व्यवस्था की जाए । निर्वाचन न' हो, तब तक अंतरिम काल के लिए आज्ञा धारणा का अधिकार दीक्षा ज्येष्ठ मुनि भीमजी का रहे। इस तरह सारा कार्य सुचारु रूप से चलता रहा । बड़े कालूजी स्वामी वय-स्थिवर होने के साथ दूरदर्शी, चतुर एवं परम संघ-हितैषी साधु थे। उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से संघ को अमूल्य सेवाएं दी थीं। आप उदयपुर चातुर्मास करके लाडनूं पहुंचे । वहां सारा मंच आपकी उत्कण्ठा से प्रतीक्षा कर रहा था। आपने लाडनूं पहुंचते ही संघ के प्रभावक साधुओं से परामर्श किया तथा सायंकाल आचार्य के निर्वाचन हेतु सभा रखी गयी। सभा में मुनिश्री कालूजी ने खड़े होकर संतों से कहा, 'संघ को आचार्य चाहिए अतः यह भार किस पर डालाजाए, इस पर सोचें ।' वातावरण में हलचल मची, सभी संतों ने मुनि कालूजी
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