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________________ सप्तमाचार्य श्रीमद् डालगणि १०१ तो उचित स्थान मिला और न पूरा आहार-पाणी ही उपलब्ध हुआ। फिर २४ मील यानी ४० किलोमीटर का विहार कर पालीताणा पधारे, पर शहर में स्थान न मिलने से धर्मशाला में ठहरना हुआ। शत्रुजय पर्वत पर चढ़ते मुनि शांतिसागर मिले । उन्होंने व्यंग्य में कहा-'सिद्धक्षेत्र में आए हो, यात्रा ठीक करना, यहां एक बार आने से ही जीव सिद्धगति में चला जाता है। आपने उनसे पूछा, 'आप कितनी बार आए ?' प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा, 'अनेक बार ।' श्री डालगणि ने विनोद में कहा, 'अनेक बार आकर आप सिद्ध नहीं बन सके, इससे ही आपकी असत्यता प्रकट होती है, हम तो पर्वत मानकर आए हैं।' वहां से लींबड़ी पधारे। वहां बिराजित १० स्थानकवासी मुनियों के अनुरोध पर स्थानक में पधारे। जहां आपका भव्य स्वागत हुआ । आपने भी जैनधर्म व तेरापंथ का परिचय देते हुए ओजस्वी प्रवचन दिया। बाद में नान्ही पक्ष के साधुओं की प्रार्थना पर आपने उनके स्थानक में व्याख्यान दिया। अमरसी ऋषि से मिलन वहां से बढवाण होते हुए आप ध्रांगध्रा पधारे। कुछ लोगों ने आपको वहां जाने से इस कारण से रोकना चाहा कि ध्रांगध्रा में 'अमरसी ऋषि' रहते थे. जो मंत्र-तंत्र के ज्ञाता थे। उनकी इच्छा के प्रतिकूल कोई साधु वहां जाता, तो उसे कष्ट उठाना पड़ता, पर आप तो निर्भीक थे । आपने ध्रांगध्रा पहुंचकर प्रवचन करने तथा भोजन लेने के बाद अपने सहयोगी संत श्री नाथूजी को अमरसी जी से मिलने भेजा। संत से जानकारी प्राप्त कर अमरसीजी ने श्री डालगणि से मिलने की इच्छा प्रकट की तथा अपने स्थान पर आने का निमंत्रण दिया । आप वहां पधारे तो श्री अमरसीजी ने वहां ठहरने का आग्रह किया। आपसे बातचीत कर, तेरापंथ के आचार-विचार की जानकारी प्राप्त कर उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई। मिलन की इस शुभ बेला की स्मृति में उन्होंने आपको एक विशिष्ट रेशमी डोरों का रजोरहण भेंट करना चाहा पर आपने निस्पहतापूर्वक भेंट स्वीकार करने में विवशता प्रकट की और कहा कि निरन्तर काम में लेने से यह रजोहरण अधिक चल नहीं सकेगा इसकी सुरक्षा नहीं होगी । अमरसी जी का वह विशिष्ट रजोहरण था। वे जब ध्रांगध्रा नरेश को मंगल पाठ सुनाने जाते तभी उसे साथ रखते, अन्यथा उसे खूटी पर ही टांगकर रखते थे। फिर अमरसीजी ने लोट पात्र (चित्र युक्त) लेने को कहा, पर आपने उसे टालते हुए फरमाया, 'हम तीन पात्र से अधिक रख नहीं सकते और लें तो इसे प्रतिदिन प्रयोग में लेना पड़ेगा, जिससे चित्र नष्ट हो जाएंगे।' अमरसीजी ने फिर अपने पास के बहुमूल्य रेशमी चद्दर आदि वस्त्र लेने का अनुरोध किया पर उसे भी आपने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि उन्हें आवश्यकता -नहीं है । अमरसी जी ने ३१ पन्नों की सुन्दर प्रति, जिसमें अनेक आगम सुन्दर व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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