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________________ कार्मन कणों का सीमांत अवशोषण 69 1. चित्र 6.3 में समय घड़ी के कांटों की दिशा में प्रवाहमान होता है। 2. प्रत्येक काल-खण्ड की स्थिति पर्याप्त वृहत् होती हैं। इसका लघुतर यूनिट सागरोपम कहलाता है जो 5x10" जैन काल चक्र (JTC) के बराबर है। सामान्यतः, सागरोपम एक कोडाकोडी पल्योपम P के बराबर होता है एवं पल्योपम के मान लगभग 4.13 x 1036-45 के बीच परिवर्ती होते हैं (देखिये, जैन, 1996 पेज 290)। फलतः, 1 सागरोपम: 10% P 4.13 x 1051-60 वर्ष अत: यह समय की एक दीर्घ इकाई है। हमने यहां इसका संक्षिप्त मान ही दिया है। इस यूनिट में ही, जैसा कि हमने पहले बताया है, विभिन्न कर्म-घटकों की स्थिति भी मापी जाती है। 3. ऐसा विश्वास किया जाता है कि काल खण्डों 5, 6, 7, एवं 8 में प्रत्येक की स्थिति 21000 वर्ष है। इसके विपर्यास में, अन्य खंडों की स्थिति का मान वृहत्तर होता है, पर वह अनन्त नहीं होता है। इसलिये इन्हें भग्न रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया गया है। 4. प्रगतिमान काल-खण्डो में प्राणियों के शरीर, सामर्थ्य एवं आध्यात्मिक प्रगति निरंतर वर्धमान होते हैं। इसके विपर्यास में, अवनतिमान कालखण्डो में ये सभी गुण क्रमशः हीयमान, ह्रासमान या घटते जाते हैं। ये कालखण्ड और अर्ध काल-चक्र एक-दूसरे का अनुसरण करते हुए अविरत रूप से एवं एक समान रीति से चलते रहते हैं। असंख्यात कालचक्रों के मध्य कभी-कभी एक हुंडावसर्पिणी (अचरजकारी घटनाओं वाला) कालचक्र भी प्रवाहित होता है। इस समय हम लोग 2001 में इसी अवनतिमान कालचक्र के पांचवे खंड के 2597 वें वर्ष में चल रहे हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि किसी भी व्यक्ति के तीर्थंकर/पूर्ण ज्ञानी/सर्वज्ञ बनने की संभावना केवल 3, 4 एवं 9, 10 वें काल-खण्डो में ही हो सकती है। वर्तमान अवनतिमान अर्ध काल-चक्र के चौबीस तीर्थंकर तीसरे (सुसुदु) एवं चौथे (सुदुदु) कालखण्ड में ही हुए थे। सुख और दुःख के ये आनुपातिक संयोग आत्म-साक्षात्कार के मार्ग के लिये आवश्यक है और पर्याप्त हैं। इस समय (2001 में) हम लोग 21000 वर्ष के पांचवें खंड के 2597 वें वर्ष में रह रहे है। फलतः इस पृथ्वी पर नयी तीर्थेकर श्रृंखला के जन्म के लिये बहुत समय लगेगा। तथापि, आध्यात्मिक विकास के उच्चतर चरण में पहुंचे हुये व्यक्ति जगत के दूसरे भागों में विद्यमान तीर्थंकरों से सम्पर्क कर सकते हैं, क्योंकि विश्व के किसी न किसी भाग में कम से कम एक तीर्थंकर सदैव रहते हैं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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