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________________ कार्मन कणों का सीमांत अवशोषण 6.2 स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 ब के निहित अर्थ उपरोक्त अवधारणा 4 ब का मुख्य बिन्दु यह है कि सभी प्राणी दुःख के प्रति संवेदनशील हैं और कोई भी प्राणी मृत्यु नहीं चाहता (परिशिष्ट 3 ब, उद्धरण 6.3)। यह बात सूक्ष्म जीवाणुओं या निगोदिया जीवों पर भी लागू होती है। तथापि, यह ध्यान में रखना चाहिये कि जीवन की धुरी (चित्र 3.1) पर स्थित किसी भी प्राणी को आहारादि के रूप में ग्रहण करना, अनिवार्य रूप से हिंसा को समाहित करता है। फलतः आदर्श रूप में हमें ऐसा नहीं करना चाहिये। अपने जीवन की उत्तर-जीविता के लिये प्रत्येक प्राणी आहार ग्रहण करता है और, इस प्रकार वह कुछ जीवन की इकाइयों का उपभोग करता है। लेकिन इसका उद्देश्य यह है कि हम जीवन-इकाइयों की न्यूनतम संभावित संख्या का उपभोग करें। आध्यात्मिक विकास जितना ही कम होगा, उसमें जीवन-इकाइयों की संख्या उतनी ही कम होगी। सामान्यतः चित्र 3.1 के अनुसार, वनस्पति या पादप जगत की जीवन-इकाइयों का मान 10 है। इस कोटि की जीवन इकाइयों का उपभोग संतोषजनक माना जाता है। तथापि, यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि उच्चतः सांद्रित सूक्ष्म जीवाणुओं का, जहां तक बन सके उपभोग नहीं करना चाहिये क्योंकि उनमें जीवन-इकाइयों का मान, पादपों की तुलना में दस गुना अधिक अर्थात् 102 होता है। इस आधार पर न केवल शहद और शराब हमारे उपभोग की सीमा से बाहर हो जाते हैं, अपितु मृत जीवों का मांस भी छूट जाता है क्योंकि इसमें असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओं की उत्पत्ति होती रहती है।' इस उपभोग में कुछ पौधों के ऊतक भी छूट जाते हैं जहां सूक्ष्म जीवाणु उत्पन्न होते रहते हैं (अंजीर और टमाटर इस कोटि के प्रतीकात्मक उदाहरण हैं)। वास्तव में तो, प्याज आदि का सेवन भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनकी जीवन-इकाइयों का मान भी 10-2 है। ये उदाहरण 'शरीर के आधार पर हिंसा के अल्पीकरण प्रक्रिया के प्रतिनिधि हैं। भावात्मक क्रियाओं के कारण अर्जित कर्म-पुद्गल प्राणी को केवल कुछ समय के लिये ही प्रभावित करते हैं। ये समय की सीमा-क्रिया की प्रकृति, कषाय की कोटि और उद्देश्य आदि पर निर्भर करती हैं। वास्तव में तो, मिथ्यात्व के कारण की गई हिंसा के सीमांत रूपों का प्रभाव युगों-युगों तक बना रहता है। इसके विपर्यास में किसी भी कषाय के प्रभाव में की गई हिंसा की क्रिया के प्रभाव की समय-सीमा इससे काफी कम होती है। तथापि, केवल एक-इंद्रिय के जीवन के नाश में नष्ट होने वाले कर्म-पुद्गलों की समय-सीमा पर्याप्त सीमित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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