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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला तीव्रता बढ़ाने के लिये भी निंदनीय है। यह हिंसक के कर्म-बन्ध की प्रबलता को पर्याप्त मात्रा में बढ़ाती है।
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अहिंसा
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(अ)
हिंसा
चित्र 6.1 आत्मा पर (अ) सकारात्मक अहिंसा और (ब) हिंसा का प्रभाव
स्वतःसिद्ध अवधारणा , 1 से हमें ज्ञात है कि सभी प्राणियों में कर्म-बन्ध से वियोजित होने की इच्छा रहती है। उन्हें स्वयं दुःखी होने की अपेक्षा, गतिशील अहिंसा के माध्यम से इस लक्ष्य की ओर बढ़ने में सहायता करना सकारात्मक अंहिसा है। आत्मा का सहज गुण तो 'जीने दो और दूसरों के जीने में सहायक बनो' है (परिशिष्ट 3 ब; उद्धरण 6.1)। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक आत्मा का कार्य सभी की सामान्य आध्यात्मिक उन्नति के लिये अन्य प्राणियों के साथ अन्योन्यक्रिया कर पारस्परिक हितों का साधन करना है। इस प्रकार यह स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 ब न केवल अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिये प्रेरित करती है, अपितु यह साथ-साथ सभी को आध्यात्मिक प्रगति के लिये प्रेरित करती है। तथापि, इसका प्रथम उत्तरदायित्व अपने प्रति है (अर्थात् स्वयं से प्रीति करो) जिससे वह दूसरों के प्रति करुणा, अनुशंसा आदि प्रदर्शित करने में समर्थ हो जाती है। इस धारणा को निम्न उद्धरण में परिपुष्ट किया गया है :
"तुम स्वयं अपने ही उत्तम मित्र हो" (परिशिष्ट 3 ब, उद्धरण 6.2)
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