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________________ जीवन का अनुक्रम माध्यम से स्वयं ही जीव की उपरोक्त चार अवस्थाओं का निर्माण करता है । (कृपया परिशिष्ट 3 व उद्धरण 3.1 देखिये, समयसार गाथा, 268) 3.5. पारिभाषिक शब्दावली 1. 2. 3. आत्मा / सजीव प्राणी अनात्मा / अचेतन वस्तु सूक्ष्मतम जीवाणु = पांच आध्यात्मिक उच्च कोटि के जीव (= पाँच परमेष्ठी) साधु आध्यात्मिक गुरु आध्यात्मिक नेता परिशुद्ध जीव शुद्धतम आत्मा / मुक्त आत्मा चार गतियां दिव्य या स्वर्ग - गति नारक जीव पशु एवं वनस्पति जीव मनुष्य Jain Education International - = जीव अजीव निगोद 11 = 28 मूलगुणों के धारक = उपाध्याय, अंग-पूर्व के ज्ञाता एवं शिक्षक = - 31 आचार्य, 36 गुणों के धारक, संघ का नेतृत्व अर्हत्, केवली, पूजनीय सिद्ध देव गति नरक गति तिर्यच गति मनुष्य गति टिप्पणी 1. पी. एस. जैनी; पृष्ठ 109 "जीवन के सबसे निचले स्तर पर जीवन का निम्नतर रूप होता है जिसे 'निगोद' कहा जाता है। ये जीव अव-सूक्ष्म होते हैं और इनमें एक इंद्रियस्पर्शन इंद्रिय होती है। वे इतने सूक्ष्म और एक समान होते हैं कि उनका व्यक्तिगत शरीर भी नहीं होता । इन निगोद जीवों के ऊपर एकेन्द्रिय जीवों का दूसरा वर्ग होता है जिसके सदस्य कर्म-पुद्गलों के सूक्ष्मतम अंशों को ग्रहण करते हैं जिनसे उनका व्यक्तिगत शरीर बनता है । फलतः उन्हें क्रमशः पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक कहते हैं।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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