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________________ 30 जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला प्रत्येक प्राणी में यह क्षमता होती है कि वह इन चार मानसिक अवस्थाओं को प्राप्त कर सके। ये अवस्थायें निम्न हैं : नारक अवस्था 2. स्वर्ग या देव अवस्था मनुष्य अवस्था पशु अवस्था देव मनुष्य अवस्था अवस्था नारक तिर्यंच अवस्था चित्र 3.3 प्राणियों की मानसिक अवस्था के अनुरूप चार दिशायें या गतियां इन चारों अवस्थाओं को प्रतीकात्मक रूप से चित्र. 3.3 में स्वस्तिक के रूप में निरूपित किया गया है जिसका केन्द्र-बिन्दु मन है। (यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि नाजी (जर्मन) लोगों ने इस प्रतीक का अशुद्ध रूप में प्रयोग किया था। उन्होंने इसका परावर्तित या प्रतिबिंबित रूप काम में लिया।) ये सभी अवस्थायें कर्म-पुदगलों के घनत्व से प्रभावित होती हैं। जब हम किसी प्राणी को जीवन-धुरी पर स्थान देते हैं, तब इसका भी ध्यान रखना चाहिये। इन अवस्थाओं की शाब्दिक व्याख्या जीव के अस्तित्व की चार अवस्थाओं या गतियों के अनुरूप होती है जिसका क्रम निम्न है : 1. नारकी जीव 2. देव 3. मनुष्य 4. पौधे और पशुपक्षी इनका केन्द्र बिन्दु विभिन्न कोटि के जीवन के माध्यम से घूर्णन-अक्ष (axis of rotation) से पास होता है। हमारी यह व्याख्या आचार्य कुंदकुंद के अनुसार है जहां उन्होनें बताया है कि आत्मा अपनी ही मानसिक क्रियाओं के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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