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________________ अध्याय 4 जन्म-मरण के चक्र (स्वतःसिद्ध अवधारणा 3) कों का बंधन आत्मा को जीवन के अस्तित्व की विभिन्न अवस्थाओं या चार गतियों (या जन्म-मरण के चक्रों) में ले जाता है। 4.1 स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 : पूर्वोक्त स्वतःसिद्ध अवधारणा 2 (अध्याय 3) में हमने विभिन्न जीवों के केवल एक भव या जीवन-काल की स्थितिक दशा पर ध्यान दिया था। उसमें जीव के विविध जन्म-मरण चक्रों की गतिक दशा पर विचार नहीं किया था। यहां यह प्रश्न होता है कि क्या जन्म-मरण का चक्र वास्तव में होता है ? स्वतःसिद्ध अवधारणा 3 यह मानती है कि इस तरह का चक्र होता है। मृत्यु होने पर यह जीव भौतिक शरीर से छुटकारा पा जाता है और वह अपने ही प्रणोदन (propulsion) या प्रेरण से आगे जाने को तैयार हो जाता है। स्वतःसिद्ध अवधारणा 2 से यह स्पष्ट है कि जीव के साथ अनुबद्ध कर्म पुद्गलों की मात्रा या परिमाण उसे जीवन-धुरी पर नया स्थान पाने के लिये उत्तरदायी होगा। इस स्थिति में निम्न प्रश्न उत्पन्न होते हैं : (1) एक जीवन से दूसरे जीवन तक किस तत्त्व का परिवहन होता है ? (2) विज्ञान का कौन-सा रूप इस परिवहन को स्वीकार करता है ? 42 कार्मिक घटक उपरोक्त प्रश्नो का उत्तर देने के लिये हम यह मानते हैं कि संदूषित आत्मा की क्रियाओं और प्रवृत्तियों से उसके साथ संलग्न कर्म-पुद्गल आठ प्रकार की विशेष प्रकृतियों में परिणत हो जाते हैं। हम इन प्रकृतियों को कर्म-घटक कहते हैं। हम इन कार्मिक घटकों को निषेधात्मक या नकारात्मक बल के रूप में मानेंगें जो आत्मा के विपर्यस्त वीर्य या ऊर्जा-घटक और कर्म-पुदगलों के कारण उत्पन्न होता हैं। यहां हम आत्मा के चार घटकों का पुनः स्मरण करें: (अध्याय 2.2) : 1. सुख 2. वीर्य 3. ज्ञान और 4. दर्शन। इसके साथ ही, हम इसके सहज स्वतंत्रताकांक्षी प्रेरक (भव्यत्व) का भी स्मरण करें। चित्र 4.1 में आत्मा की किसी निश्चित समय पर एक नियत स्थिति प्रदर्शित की गई हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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