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________________ परिशिष्ट 2 : जैन आगम ग्रंथ 139 (र) दशवैकालिक : वर्ग 3 स : इसमें मुनि-जीवन से सम्बन्धित विवरण है। इसके दसों अध्ययन स्वाध्याय के लिये निर्धारित समय-सीमा के बाद पढ़े जाते हैं। (ल) उत्तराध्ययन : वर्ग 3 स (उत्तरवर्ती अध्ययन) : यह ग्रंथ महावीर के अंतिम उपदेश के रूप में माना जाता है; विशेषकर, उसका वह भाग जिसमें गौतम को गुरु के प्रति भी निर्ममत्व धारण करने की सलाह दी गई है। इसके साथ ही, इसमें केशी-गौतम के उस संवाद का भी विवरण है जिसमें महावीर ने चार के बदले पांच व्रतों की प्रस्तावना की है। इसमें संयोजित पांचवां व्रत ब्रह्मचर्य है। (व) आवश्यक : (वर्ग 3 स) : इसमें वर्तमान प्रतिक्रमण सूत्र का अधिकांश भाग पाया जाता है। प्रतिक्रमण का अर्थ है - अपने दोषों की स्वीकृति और आगे न होने देने की कामना। इस प्रतिक्रमण सूत्र का अभ्यास आज भी प्रचलित है और इसमें जैन उपदेश संक्षेप में बताये गये हैं। प.2.2 द्वितीयक जैन आगम : अनुयोग – आधारित ग्रंथ जैनों के द्वितीयक कोटि के आगम ग्रंथ प्रथम कोटि के आगम ग्रंथो के पूरक हैं। इन्हें अनुयोगों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। इन वर्गों के चार उपवर्ग है जिन्हें जैनों के चार वेद कहते है। ये मुख्यतः साधुओं और स्थविरों के द्वारा लिखे गये हैं। इन्हें अनुयोग ग्रंथ भी कहते हैं। यह वर्गीकरण प्रथम सदी के आस-पास विकसित हुआ है। इसके चार उपवर्ग निम्न हैं : 1. प्रथमानुयोग (धर्मकथा अनुयोग, प्रथम अनुयोग) : इसमें तीर्थंकरों एवं अन्य कोटि के महापुरुषों या शलाका पुरुषों के जीवन-चरित का वर्णन किया जाता है। 2. करणानुयोग : (विश्वविज्ञान एवं विज्ञान का अनुयोग) : इसमें विश्व-विज्ञान एवं ज्योतिष विज्ञान के समान प्राचीन विज्ञान एवं कलाओं का वर्णन किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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