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________________ 138 जैनधर्म की वैज्ञानिक आधारशिला आगमों की परम्परा प्रचलित है और 32 आगमों की परम्परा में 10 प्रकीर्णक और 3 मूलसूत्र नहीं हैं (देखिये प.2.2)। इन आगम ग्रंथो में कुछ विशिष्ट ग्रंथ निम्न हैं : (अ) आचारांग : वर्ग 2 : जैन साधु एवं साध्वियों की आचार-संहिता का ग्रंथ (ब) सूत्रकृतांग : वर्ग 2 : अनेकांतवाद के आधार पर जैनेतर दर्शनों का समीक्षात्मक परीक्षण। (स) भगवती : वर्ग 2 : (इस शब्द का अर्थ आदरणीय है) : । इसमें गौतम के प्रश्न और महावीर के उत्तर दिये गये हैं और स्याद्वाद पद्धति का उपयोग किया गया है। इसमें गोशाल और महावीर के सम्बन्ध का विवरण भी अभिलेखित किया गया है। (द) दृष्टिवाद : वर्ग 2 : यह अंग वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इसमें, विशेषतः कर्मवाद के सिद्धान्त की विवेचना थी जिसे दिगम्बरों के दो मुख्य आगम-कल्प ग्रंथों-षट्खंडागम और कषायपाहुड़ में अनुसरित किया गया है। इन दोनो ग्रंथो की प्रमुख टीकायें क्रमशः वीरसेन कृत धवला (816 ई.) और जयधवला (823 ई. तक, इसका कुछ भाग जिनसेन ने लिखा था) है जो 792-837 ई. के बीच की मानी जाती हैं। श्वेताम्बर साहित्य में कर्म सिद्धांत का विश्रुत टीकाग्रंथ देवेन्द्रसूरि का 'कर्म-ग्रंथ' (चौदहवीं सदी) है। इसकी विषय सूची के लिये ग्लेजनप (1942) की पुस्तक देखिये। (य) आचार दशा : वर्ग 3 ब : जैनों में कल्पसूत्र भी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है जो आचार दशा का आठवां अध्याय है। इसमें तीर्थकर और उनकी गणधरोत्तर परम्परा दी गई है। इस अध्याय में वर्षाकाल में मुनियों के लिये आचार संहिता भी दी गई है। इसे लगभग 1500 वर्षों से सार्वजनिक वाचन के रूप में, (विशेषकर पर्युषण पर्व में, यह दिगम्बरों में 10 दिन का और श्वेताम्बरों में आठ दिन का होता है) प्रयुक्त किया जाता है। यह राजा ध्रुवसेन के पुत्र की मृत्यु के समय सबसे पहले उसे बलभी में धीरज बंधाने के लिये सुनाया गया था। तब से इसके वाचन की परम्परा चली आ रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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