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जैनधर्म की वैज्ञानिक आधारशिला
सिद्धान्तों में द्रव्यमान का पाँचवाँ आयाम भी आवश्यक माना जाता है। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिये कि जैनों के 'प्रदेश' या 'आकाश-- प्रदेश' की परिभाषा के अंतर्गत इसे एक बिंदु माना जाता है जिसका आयाम होता है, चाहे वह कितना ही अल्प क्यों न हो। यही नहीं, विश्व में पाये जाने वाले समस्त चरम कण इस बिंदु में अधिष्ठित हो सकते हैं। (देखियें, बाशम, 1953 पेज 77-78)। इस प्रकार जैनों के सिद्धान्त में वृहत् - धमाका (बिग बेंग सिद्धान्त) का संकेत मिलता है। इसके अतिरिक्त, बाशम (बाशम, 1953 पेज 78) एक गाथा उद्धृत करते हैं जिसका आशय निम्न है : "आयामीय बिंदुओं " का संकुल समतलीय है जबकि उन बिंदुओं का संकुल ऊर्ध्वाधर होता है जिनका कार्य समय के आधार पर लक्षणित किया जाता है ।" इस प्रकार काल चौथा आयाम है |
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आधुनिक भौतिकी के वर्तमान विद्वानों में स्टीफेन हॉकिंग का नाम प्रमुख है। उन्होंने इस मत को तर्क पर आधारित बताया है कि 1. विश्व का न तो आदि है और न अंत हैं, (देखिये, हॉकिंग 1988 पेज 116 ) । उनका यह मत अध्याय 6.4 में वर्णित जैन विश्व - चक्रों के आधार का संकेत देता है। साथ ही, उनका विश्व की सीमितता का दावा भी जैनों की विश्व-सम्बन्धी धारणा में निहित है । कृष्ण विवर ( ब्लेक होल) की धारणा, खंड 4.4 में सांकेतिक मोक्ष की धारणा से समानता प्रदर्शित करती है। अधिष्ठित और अनधिष्ठत आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) की सीमायें भी घटना - क्षेत्र ( इंवेंट होराइजन ) से साम्य रखती हैं जो कृष्ण विवर की सीमा के लिये प्रयुक्त होता है (देखिये, हॉकिंग 1988 पेज 89 ) । फिर भी, कोई कृष्ण विवर में जाने की अपेक्षा मोक्ष जाना अधिक पसंद करेगा | जैन विज्ञान में विचारों को भी कणिकामय माना गया है।
10.5 उपसंहारी टिप्पणी
आधुनिक विज्ञान इस समय एक किण्वन की अवस्था में चल रहा है और सदैव पदार्थ और क्षेत्र से सम्बन्धित बिल्कुल नवीन धारणायें सामने आ रही हैं। जिन पाठकों को 'विज्ञान और धर्म' से सम्बन्धित विषयों में रुचि है, उन्हें डेविस (1983) और खुर्शीद (1987) का लेख पढना चाहिये । हम इस समय आइंस्टीन (1940,1941 ) के कुछ मतों को अपने उपसंहार में देना चाहते हैं । सर्वप्रथम, उनकी धर्म-सम्बन्धी धारणा जैन मत के लगभग समान ही है :
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